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________________ भूमिका ३१ पूर्वकोटि है। सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक और देशविरतिसामायिक की लब्धि की दृष्टि से जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और सर्वविरति सामायिक की एक समय है। उपयोग की अपेक्षा सबकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टत: नाना जीवों की अपेक्षा से सर्व काल है।' २०. कति–सामायिक के प्रतिपत्ता कितने हैं ? । • सम्यक्त्वसामायिक व देशविरतिसामायिक के प्रतिपत्ता एक काल में उत्कृष्टत: क्षेत्र पल्योपम के असंख्येय भाग में जितने आकाश-प्रदेश होते हैं, उतने हैं। देशविरतिसामायिक के प्रतिपत्ता से सम्यक्त्वसामायिक के प्रतिपत्ता असंख्येय गुण अधिक होते हैं। जघन्यतः एक या दो प्रतिपत्ता उपलब्ध होते हैं। श्रुतसामायिक के प्रतिपत्ता श्रेणी के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उत्कृष्टत: उतने होते हैं। जघन्यतः एक अथवा दो होते हैं । सर्वविरति सामायिक के प्रतिपत्ता उत्कृष्टतः सहस्रपृथक् (दो से नौ हजार) तथा जघन्यतः एक अथवा दो होते हैं। (विशेष विवरण हेत देखें विभामहे २७६४-७४) २१. अंतर-जीव द्वारा सम्यक्त्व आदि सामायिक प्राप्त करने पर उसके परित्याग के बाद जितने समय पश्चात् पुनः उसकी प्राप्ति होती है, उसे अंतरकाल कहते हैं। श्रुतसामायिक के प्रतिपत्ता का अंतरकाल जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः अनंतकाल है। शेष तीन सामायिकों के प्रतिपत्ता का अंतरकाल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः देशोन अपार्ध पुद्गलपरावर्त्त जितना है। आशातनबहुल जीवों के उत्कृष्ट अंतर काल होता है। यह अंतरकाल एक जीव की अपेक्षा से है, नाना जीवों की अपेक्षा से अंतरकाल नहीं होता। २२. अविरहित-जिस काल में सामायिक का प्रतिपत्ता कोई नहीं होता, वह उसका विरहकाल है। यहां अविरहकाल की विवक्षा है। सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक एवं देशविरतिसामायिक के प्रतिपत्ता आवलिका के असंख्येय भाग समयों तक निरंतर एक या दो आदि मिलते हैं, तत्पश्चात् उनका विरहकाल प्रारम्भ हो जाता है। चारित्रसामायिक के प्रतिपत्ता का अविरहकाल आठ समय तक होता है। उस समय में एक, दो आदि प्रतिपत्ता मिलते हैं, तत्पश्चात् उनका विरहकाल प्रारम्भ हो जाता है। सामायिक चतुष्क का जघन्यतः अविरहकाल दो समय का होता है। २३. भव-सम्यक्त्वसामायिक और देशविरतिसामायिक के प्रतिपत्ता क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश होते हैं, उत्कृष्टतः उतने भव करते हैं तथा जघन्यतः एक भव करते हैं। तत्पश्चात् मुक्त हो जाते हैं। चारित्रसामायिक का प्रतिपत्ता उत्कृष्ट आठ भव तथा जघन्यत: एक भव करता है। श्रुतसामायिक का प्रतिपत्ता उत्कृष्टत: अनंत भव तथा सामान्य रूप से जघन्यतः एक भव करता है। जैसे-मरुदेवी माता। २४. आकर्ष-एक या अनेक भवों में सामायिक कितनी बार उपलब्ध होती है? • सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक और देशविरतिसामायिक का एक भव में सहस्रपृथक्त्व १. विभामहे २७६३। २. आवनि. ५५०, ५५१, हाटी. १ पृ. २४१ । ३. आवनि. ५५३। ४. आवनि. ५५४, हाटी. १ पृ. २४१, २४२। ५. आवनि. ५५६, हाटी. १ पृ. २४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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