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आवश्यक नियुक्ति
२५७ ५९६. जरा-मरण से विप्रमुक्त सिद्धों की अवगाहना वर्तमान भव से तीन भाग परिहीन होती है। उनका संस्थान अनित्थंस्थ होता है। ५९७. जहां एक सिद्ध है, वहां भवक्षय से विप्रमुक्त अनंत सिद्ध अन्योन्य समवगाढ रहते हैं तथा वे सभी लोकान्त का स्पर्श किए हुए हैं। ५९८. प्रत्येक सिद्ध नियमत: सभी आत्मप्रदेशों से अनंत सिद्धों का स्पर्श करता है। देशप्रदेशों से जो स्पृष्ट होते हैं, वे भी सर्वप्रदेशों से स्पृष्ट सिद्धों से असंख्येयगुणा हैं। ५९९. वे सिद्धजीव अशरीर, जीवघन:-आत्मप्रदेशों की सघनता से युक्त, दर्शन तथा ज्ञान में उपयुक्त, साकार-अनाकार लक्षण वाले हैं। यह सिद्धों का स्वरूप है। ६००. वे केवलज्ञान से उपयुक्त होकर सभी पदार्थों के गुण-पर्यायों को जानते हैं तथा केवल दर्शन से सब पदार्थों को देखते हैं। ६०१. वे ज्ञान-दर्शन-इनमें से किसी एक में उपयुक्त रहते हैं। सभी केवलियों के एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते। ६०२. सिद्धों को जैसा अव्याबाध सुख प्राप्त है, वैसा सुख सब देवों और मनुष्यों को प्राप्त नहीं है। ६०३. देवताओं का तीनों काल का संपूर्ण सुख पिंडीभूत करके उसे अनन्त वर्गवर्गों से वर्गित कर दिया जाए तो भी वह मुक्तिसुख के अनंतवें भाग जितना भी नहीं है। ६०४. सिद्धों की सर्वकाल की सुखराशि को यदि पिंडित कर दिया जाए तो वह अनंतवर्गों में विभक्त होने पर भी लोक-अलोक के आकाश-प्रदेशों में नहीं समा सकेगी। ६०५, ६०६. जैसे कोई म्लेच्छ नगर के गुणों को अनेक प्रकार से जानता है परन्तु वह अन्य म्लेच्छजनों को बता नहीं सकता क्योंकि बताने योग्य उपमाओं का उसके पास अभाव है। इसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है, उसका कोई औपम्य नहीं है। फिर भी विशेषरूप से सामान्यजन की प्रतिपत्ति के लिए कुछ सादृश्य बतला रहा हूं, उसे सुनो।
१. परिमित सिद्धक्षेत्र में अनंत सिद्धों की अवगाहना कैसे संभव है? इसका समाधान करते हुए जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कहते
हैं कि सिद्ध अमूर्त हैं अतः परिमित क्षेत्र में भी अनंत सिद्ध रह सकते हैं। जैसे-अनंत सिद्धों का अनंत ज्ञान प्रत्येक द्रव्य को जानता है। एक नर्तकी को हजारों आंखें देखती हैं। एक छोटे से कक्ष में अनेकों दीपकों का प्रकाश समा जाता है। जब अनेक मूर्त प्रदीपों की प्रभा भी सीमित क्षेत्र में समा जाती है तो अनंत अमूर्त आत्माओं का सीमित क्षेत्र में
अवगाह भी संभव है (विभामहे गा. ३१८१, ३१८२)। २. जीवघन-जो शरीर के शुषिर भाग को पूरा कर सधन हो गए हैं।
केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग के सम्बन्ध में आचार्यों की विभिन्न अवधारणाएं रही हैं। सिद्धसेन के अनुसार केवली एक समय में जानते-देखते हैं, उनके जानने-देखने में अभेद रहता है, छद्मस्थ में नहीं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि आचार्यों की मान्यता से केवली का ज्ञान और दर्शन अलग-अलग समय में होता है। मल्लवादी के अनुसार केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपद् होता है (नंदीमवृ प. १३४)।
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