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आवश्यक नियुक्ति सहस्रदल वाले पद्मों पर पैर रखते हुए समवसरण में प्रवेश करते हैं। उनके पीछे सात पद्म और होते हैं। भगवान् कभी पश्चिम प्रहर में भी प्रवचन करते हैं। ३६२/४. भगवान् समवसरण में प्रवेश कर चैत्यवृक्ष की प्रदक्षिणा कर पूर्वाभिमुख बैठते हैं। देवता शेष तीन दिशाओं में प्रतिरूपक तीर्थंकर की आकृति बनाते हैं। ज्येष्ठ गणधर अथवा अन्य गणधर दक्षिण पूर्व दिशा में तीर्थंकर के निकट बैठते हैं। (शेष गणधर भगवान् के पीछे या पार्श्व में बैठते हैं।) ३६२/५. जिन तीन दिशाओं में देवता तीर्थंकर की प्रतिकृति बनाते हैं, वे भी तीर्थंकर के प्रभाव से तीर्थंकर के समान रूप वाली लगती हैं। ३६२/६. तीर्थ अर्थात् गणधर के बैठ जाने पर क्रमशः अतिशयधारी श्रमण, वैमानिक देवियां, साध्वियां, भवनपति, व्यन्तर तथा ज्योतिष्क देवियां खड़ी रहती हैं। ३६२/७. अन्य केवली जिनेश्वर देव की तीन प्रदक्षिणा कर, तीर्थ को प्रणाम कर गणधर के पीछे बैठते हैं। मनःपर्यवज्ञानी मुनि भी भगवान् को वंदना कर केवली के पीछे बैठते हैं। उनके बाद निरतिशायी साधु तथा उनके पीछे वैमानिक देवियां खड़ी रहती हैं। मनःपर्यवज्ञानी आदि भगवान् को नमन करते हुए अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं। ३६२/८. भवनपति, ज्योतिष्क तथा व्यन्तर देव-ये भगवान् को वंदना कर उत्तर-पश्चिम भाग में बैठते हैं। वैमानिक देव, मनुष्य तथा स्त्रियां उत्तरपूर्व दिशा में बैठती हैं। जो जिनकी निश्रा में आते हैं, वे उनके ही पास बैठते हैं। ३६२/९. एक-एक दिशा में एक-एक त्रिक सन्निविष्ट होता है। बारह प्रकार की इस परिषद् में आदि और चरम त्रिक में पुरुष और स्त्रियां एक साथ,दूसरे त्रिक में केवल पुरुष और तीसरे त्रिक में केवल स्त्रियां सन्निविष्ट होती हैं।
१. भगवान् कभी-कभी सूर्यास्त तक अर्थात् अंतिम पौरुषी तक भी प्रवचन करते हैं। इसकी पुष्टि गा. ३६२/२६ में निर्दिष्ट
दासी की कथा से होती है। २. अतिशयधारी अर्थात् अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दसपूर्वी, नौपूर्वी, स्वेडौषधि आदि लब्धिधारक मुनि भगवान् की प्रदक्षिणा
कर, वंदना कर 'नमो तित्थस्स, नमो केवलीणं' ऐसा बोलकर केवलियों के पीछे बैठ जाते हैं। शेष संयत पूर्ववत् विधि संपन्न कर अतिशयधारी मुनियों के पीछे बैठ जाते हैं तथा वैमानिक देवियां साधुओं के पीछे खड़ी रहती हैं, बैठती नहीं। श्रमणियां भी पूर्वद्वार से प्रवेश कर वैमानिक देवियों के पीछे खड़ी रहती हैं, बैठती नहीं। भवनपति, ज्योतिष्क तथा व्यन्तर देवियां भी दक्षिण द्वार से प्रवेश कर तीर्थंकर को प्रदक्षिणा कर दक्षिण-पश्चिम दिशा अर्थात् नैर्ऋतकोण में खड़ी
रहती हैं (आवचू १ पृ. ३२७, आवमटी. प. ३०४)। ३. दक्षिण पूर्व दिशा में क्रमश: मुनि, वैमानिक देवियां तथा साध्वियां रहती हैं।
दक्षिण-पश्चिम दिशा में क्रमशः भवनवासी, व्यन्तर तथा ज्योतिष्क देवियां खड़ी रहती हैं। उत्तर-पश्चिम दिशा में भवनपति, व्यंतर तथा ज्योतिष्क देव बैठते हैं। उत्तर-पूर्व दिशा में वैमानिक देव, मनुष्य तथा मनुष्य-स्त्रियां बैठती हैं।
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