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________________ आवश्यक नियुक्ति २१३ ३५८. देवता सुदृढ़ वृंत वाले, जल और स्थल में उत्पन्न होने वाले पांच वर्षों से युक्त दिव्य सुरभित फूलों की चारों ओर वर्षा करते हैं। ३५९. व्यन्तर देव चारों दिशाओं में मणि, कनक और रत्नमय तोरण-द्वार निर्मित करते हैं। वे विशिष्ट आकार वाले छत्र, स्तंभपुत्तलिका, मकर, ध्वज, स्वस्तिक आदि चिह्न से युक्त होते हैं। ३६०. देवेन्द्र रत्नों से विचित्र तीन प्राकारों-परकोटों की विकुर्वणा करते हैं, जो मणि-कांचन के कंगूरों से विभूषित होते हैं। ३६०/१. आभ्यन्तर, मध्य तथा बहिर्भाग में तीन प्रकार के प्राकार होते हैं। वे क्रमशः रत्नमय, कनकमय तथा रजतमय होते हैं। वैमानिक देव रत्नमय, ज्योतिष्क देव कनकमय तथा भवनपति देव रजतमय प्राकार का निर्माण करते हैं। ३६०/२. उनमें मणिमय, रत्नमय और स्वर्णमय कंगूरे होते हैं। सभी द्वार रत्नमय होते हैं। वे सर्वरत्नमय पताका, ध्वज, तोरण तथा स्वस्तिक आदि चिह्नों से युक्त होते हैं। ३६१. व्यन्तर देव धूपघटिकाओं की विकुर्वणा करते हैं, जिनसे चारों ओर कालागरु और कुन्दुरुक्क से मिश्रित मनोहारी गंध फैल जाती है। ३६२. तीर्थंकर के चरणमूल में आते हुए देव सभी दिशाओं में कलकल शब्द से हर्षध्वनि तथा सिंहनाद करते हैं। ३६२/१. समवसरण में व्यन्तर देव भगवान् के देह-परिमाण से बारह गुना ऊंचे अशोक वृक्ष की विकुर्वणा करते हैं। उसके नीचे रत्नमय पीढ, उसके ऊपर देवच्छंदक, मध्य में स्फटिक सिंहासन, उसके ऊपर छत्रातिछत्र, दोनों ओर चामर लिए हुए यक्ष तथा पद्मसंस्थित धर्मचक्र की स्थापना करते हैं। उसके अतिरिक्त जो कुछ अन्य करणीय होता है, वह सब रचना व्यंतर देव करते हैं। ३६२/२. सामान्य समवसरण में ऐसा होता है अर्थात् जहां बहुत सारे देव और इन्द्र आते हैं, वहां ऐसा होता है। जहां कोई ऋद्धिमान देव समवसृत होता है, वहां वही देव प्राकार आदि सब का निर्माण कर देता है। अन्यत्र इसकी भजना है-अर्थात् जहां इन्द्र नहीं आते, वहां भवनपति आदि देव सब करते हैं। ३६२/३. भगवान् सूर्योदय के बाद पूर्वद्वार से प्रथम पौरुषी में (प्रवचन करने के लिए) देवकृत दो १. प्रथम प्राकार के कंगूरे में पांच प्रकार की मणियां खचित होती हैं, जिनकी रचना वैमानिक देव करते हैं। दूसरे प्राकार के कंगूरे रत्नजटित होते हैं, जिनकी विकुर्वणा ज्योतिष्क देव करते हैं तथा तीसरे प्राकार के कंगूरे स्वर्णमय होते हैं, जिनकी रचना भवनपति देव करते हैं (आवहाटी. १ पृ. १५४)। २. आवमटी प. ३०३; अस्मिंस्तु भगवतः समवसरणेऽशोकपादपं शक्रः, छत्रातिच्छत्रमीशानो विकुर्वितवान्, चामरे चामरधारौ बलिचमराविति सम्प्रदाय:- भगवान् महावीर के समवसरण में अशोकवृक्ष को विकुर्वणा शक्र ने, छत्रातिछत्र की ईशानेन्द्र ने की। बलि और चमरेन्द्र चामरधारी थे, परम्परा से यह बात ज्ञात होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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