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________________ १८४ आवश्यक नियुक्ति १३७/६. भगवान् के केश काले थे। उनकी आंखें सुन्दर, ओष्ठ बिम्ब-फल की भांति रक्त और दांतों की पंक्ति धवल थी। वे श्रेष्ठ पद्मगर्भ की भांति गौर वर्ण वाले तथा विकसित कमल की गंध युक्त नि:श्वास वाले थे। १३७/७. भगवान् जातिस्मृति ज्ञान से युक्त थे। भगवान् के तीनों ज्ञान-मति, श्रुत तथा अवधि अप्रतिपाती थे। वे मनुष्यों से कान्ति और बुद्धि में बहुत अधिक थे। १३७/८. उस समय युगल रूप में उत्पन्न एक बालक की ताड़फल से मृत्यु हो गई। यह पहली अकालमृत्यु थी। नाभि कुलकर को कन्या के विषय में निवेदन करने पर उन्होंने उस कन्या को ऋषभ की पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। १३७/९. भगवान् को भोग-समर्थ जानकर देवेन्द्र ने भगवान् का वरकर्म किया और देवियों ने दोनों महिलाओं-नंदा और सुमंगला का वधूकर्म किया। १३७/१०. जब भगवान् का आयुष्य छह लाख पूर्व का हुआ, तब भरत, ब्राह्मी, सुन्दरी और बाहुबलिये चारों उत्पन्न हुए। १३७/११, १२. कालान्तर में सुमंगला ने उनपचास युगलों को जन्म दिया। उस समय के अन्यान्य युगल हाकारादि नीतियों का अतिक्रमण करने लगे। लोंगों ने ऋषभ को निवेदन किया। भगवान् ने कहा- 'राजा दंड देता है।' यह कहने पर लोगों ने कहा- 'हमारे भी एक राजा हो।' भगवान् ने कहा- 'कुलकर नाभि से राजा की मांग करो।' उन्होंने कुलकर से राजा की मांग की तब कुलकर नाभि ने कहा- 'तुम्हारा राजा ऋषभ है। १३७/१३. अवधिज्ञान से उपयोग लगाकर इंद्र ने वहां आकर भगवान् का अभिषेक किया। उसने नरेन्द्र के योग्य मुकुट आदि अलंकारों से ऋषभ को अलंकृत किया। १३७/१४. लोगों ने कमलिनी पत्रों से पानी लाकर ऋषभ के पैरों पर छिड़का, यह देखकर देवराज इंद्र बोला- 'इस नगरी के पुरुष अच्छे विनीत हैं इसलिए इस नगरी का नाम विनीता रखा जाए।२ १३७/१५, १६. उस समय राजा ऋषभ ने राज्य-संग्रह के निमित्त अश्व, हाथी और गायों का संग्रहण किया। इन चतुष्पदों का ग्रहण कर भगवान् ने चार प्रकार का संग्रह किया-उग्र, भोग, राजन्य तथा क्षत्रिय। आरक्षक वर्ग उग्र, गुरुस्थानीय भोग, वयस्य राजन्य तथा शेष क्षत्रिय कहलाए। १. देखें परि. ३ कथाएं। २. आवहाटी. १ पृ.८५ ; वैश्रमणं यक्षराजमाज्ञापितवान्-इह द्वादशयोजनदी( नवयोजनविष्कम्भां विनीतनगरी निष्पादयेति, स चाज्ञासमनन्तरमेव दिव्यभवनप्राकारमालोपशोभितां नगरीचक्रे-इन्द्र ने वैश्रमण देव को आज्ञा दी कि बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी विनीता नगरी का निर्माण करो। वैश्रमण देव ने आज्ञा प्राप्त करते ही दिव्य भवन और प्राकारों से शोभित नगरी का निर्माण किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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