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________________ १७२ आवश्यक नियुक्ति ज्ञानवृष्टि-शब्दवृष्टि करते हैं। उस ज्ञानवृष्टि को गणधर संपूर्णरूप से अपने बुद्धिरूप आत्मपट पर ग्रहण करते हैं तथा तीर्थंकर द्वारा भाषित तत्त्वों को प्रवचन-द्वादशांगी के रूप में संग्रथन करते हैं। ८५. गणधर अपना जीत आचार समझकर इन कारणों से सूत्रों की रचना करते हैं • सूत्ररूप में रचित आगमों का ग्रहण सहज हो सकता है। • उनकी गणना, धारणा, शिष्यों को वाचना देना, प्रश्न उपस्थित करना आदि सुखपूर्वक हो सकता है। ८६. तीर्थंकर अर्थ अर्थात् शब्द का उच्चारण करते हैं। शासन के हित के लिए गणधर सूक्ष्म तथा अर्थबहुल सूत्रों की रचना करते हैं। यह सूत्र के प्रवर्तन का क्रम है। ८७. सामायिक से बिन्दुसार (चौदहवें पूर्व) पर्यन्त शास्त्र श्रुतज्ञान हैं। श्रुतज्ञान का सार है-चारित्र तथा चारित्र का सार है निर्वाण। ८८. जो मुनि तप-संयममय योगों को वहन करने में असमर्थ होता है, वह श्रुतज्ञान में प्रवर्तमान होने पर भी मोक्ष को उपलब्ध नहीं होता। ८९, ९०. दक्ष निर्यामक वाला जहाज भी बिना पवन के महासमुद्र को नहीं तैर सकता तथा सामुद्रिक वणिक् इष्ट नगरी को प्राप्त नहीं कर सकता, वैसे ही श्रुतज्ञान रूपी निपुण निर्यामक को प्राप्त करके भी जीवरूपी पोत तप-संयम रूपी पवन के बिना सिद्धि नगरी को प्राप्त नहीं हो सकता। ९१. (भगवान् कहते हैं) हे प्राणी! तुमने संसार-सागर से उन्मज्जन किया है, (अर्थात् मनुष्यभव को प्राप्त किया है) पुनः उसमें डूब मत जाना। चारित्रगुणविहीन व्यक्ति बहुत जानने पर भी संसार-सागर में डूब जाता है। ९२. चारित्र-विहीन व्यक्ति बहुत सारा श्रुत का अध्ययन कर लेने पर भी क्या कर पाएगा? लाखों दीपकों के जल जाने पर भी अंधा व्यक्ति क्या देख पाएगा? ९३. जो चारित्र से युक्त है, उसका अल्पश्रुत भी प्रकाश करने वाला होता है। आंख वाले व्यक्ति के लिए एक दीपक भी प्रकाश करने वाला बनता है। ९४. जैसे चंदन का भार वहन करने वाला गधा भार का भागी होता है, चंदन की सौरभ का नहीं। वैसे ही चारित्र-विहीन ज्ञानी भी केवल ज्ञान का भागी होता है, सुगति का नहीं। ९५. क्रियाहीन ज्ञान व्यर्थ है। अज्ञानी की क्रिया भी विफल होती है। आंख से देखता हुआ पंगु तथा दौड़ता हुआ अंधा अग्नि में जल कर मर गया।' १. 'ज्ञानवृष्टिं' इति कारणे कार्योपचारात् शब्दवृष्टिम्। २. गणधरों में सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धि होती है। उसी से वे मूलभूत आचार आदि आगमों की रचना करने में समर्थ होते हैं (नंदीमटी प २०३)। ३. देखें परि. ३ कथाएं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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