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आवश्यक नियुक्ति
६४९.
आलोयणा य विणए, खेत्त - दिसाऽभिग्गहे य काले य। रिक्ख गुणसंपया वि य अभिवाहारे य अट्ठमए' ॥
१. स्वो ७२६/४१२२ गाथा ६४९ सभी हस्तप्रतियों में है हा म, दी में यह मूलभाष्य के क्रम में है। स्वो और महे में यह निगा के क्रम में है। महेटी में इस गाथा के लिए 'इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः ' का संकेत है। यह गाथा निगा की होनी चाहिए क्योंकि इसकी विस्तृत व्याख्या भाष्यकार करते हैं। इसके अतिरिक्त हस्तप्रतियों में इस गाथा से पूर्व तीन गाथाएं मूलभाष्य की थीं, जिनके बारे में "गाथात्रयं भा व्या" का उल्लेख है किन्तु इस गाथा के बारे में कोई संकेत नहीं है। यदि यह गाथा मूलभाष्य की होती तो इसे भी उन गाथाओं के अन्तर्गत जोड़ा जा सकता था। संभव है कि हा दी, म में संपादक द्वारा ये क्रमांक लगाए गए हों। हमने इसे निगा के क्रम में रखा है। फिर भी इसके बारे में गहन चिंतन की आवश्यकता है। गाथा ६४९ के बाद सभी हस्तप्रतियों में पव्वज्जाए....... (हाटीभा १७९) आलोइए....... (हाटीभा १८०) ये दो मूलभाष्य की गाथाएं हैं। इन दोनों गाथाओं के लिए ब और ला प्रति में गाथाद्वयं भाव्या का उल्लेख है। इसके बाद हस्तप्रतियों में निम्न गाथा मिलती है
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अत्तभत्तिगओ, अमुई अणुयत्तओ विसेसण्णू । उज्जुत्तग ऽपरितंतो, इच्छियमत्थं लहइ साहू ॥
यह गाथा हा, म, दी में 'उक्तं च भाष्यकारेण' उल्लेख के साथ उद्धृत गाथा के रूप में है। मूलतः यह स्वो ४१२८ और महे ३४०२ की है। इस गाथा के बाद सभी हस्तप्रतियों में निम्न तीन अन्यकर्तृकी गाथाएं और मिलती हैं। ब और ला प्रति में इनके लिए गाथात्रयं 'ऽन्या व्या' का उल्लेख है। ये गाधाएं स्वो और महे में भी हैं
उच्छुवणे सालिवणे, पउमसरे कुसुमिते व वणसंडे। गंभीरसाणुणाए, पयाहिणजले जिणघरे वा ॥१ ॥ देख न तु भग्ग झामित, सुखाण सुन्ना मणुण्णगेहेसु छारंगार कयारा, मेन्झादी दव्चदुद्वे वा ॥२॥ पुव्वाभिमुो उत्तरमुह व देवाऽहवा पडिच्छेजा जाए जिणादओ वा दिसाइ जिणचेहयाई वा ॥ ३ ॥ (स्वो ४१३० - ४१३२, महे ३४०४-३४०६ )
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ये गाथाएं हा दी, म आदि टीकाओं में उगा के रूप में हैं (हाटी पू. ३१४, मटी प. ५७१) ।
इसी क्रम में भा. व्या उल्लेख के साथ पडिकुट्टदि..... (हाटीभा १८१) मूलभाष्य गाथा सभी हस्तप्रतियों में मिलती है। इस गाथा के पश्चात् छह निम्न अन्यकर्तृकी गाथाएं हस्तप्रतियों में मिलती हैं। इनके लिए ब और ला प्रति में 'गाथा षट्कंऽन्या उव्या' का उल्लेख है। मुद्रित चूर्णि में भी कुछ गाधाएं मिलती हैं। इनमें कुछ गाथाएं स्वो एवं महे में हैं मुद्रित हा, म, दी में भी 'उक्तं च' उल्लेख के साथ कुछ गाथाएं उगा के रूप में मिलती हैं
चाउसि पण्णरसिं, वज्जेज्जा अट्ठमिं च नवमिं च । छद्धिं च चउत्थिं बारसिं च दोन्हं पि पक्खाणं ॥ १ ॥ मिंगसिर - अद्दा पुरसो, तिनि य पुब्वाइ मूलमस्सेसा। हत्थो चित्ता य तहा, दस बुढिकराई नाणस्स ॥२ ॥ संझागयं रविगयं, विड्डेरं सग्गहं बिलंबिं च। राहुहतं गहभिण्णं च वज्जए सत्तनक्खत्ते ॥ ३ ॥
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(स्वो ४१३३ -४१३५, महे ३४०७ - ३४०९ ) संज्ञागयम्मि कलहो, होइ कुभत्तं विलंबिनक्खते। विट्टेरे परविजओ, आइच्यगए अणिव्वाणं ॥ ४ ॥ जं सग्गहम्मि कीर, नक्खत्ते तत्थ विग्गहो होइ। राहुहए वि य मरणं, गहभिण्णे सोणिउग्गालो ॥५ ॥ पियधम्मो धम्मो, संविग्गो भीरु असदो य। खंतो दंतो गुत्तो, धिरव्वयजिइंदिओ उजू ॥ ६ ॥
(स्वो ४१३६, महे ३४१० )
इन गाथाओं के पश्चात् हस्तप्रतियों में पुनः अभिवाहारो (हाटीभा १८२) मूलभाष्य की गाथा भा. व्या उल्लेख के साथ मिलती है। स्वो के संपादक मालवणियाजी ने पादटिप्पण में उल्लेख किया है कि स्वो '४१२८ (अणुरतो) गाथातः प्रारभ्य (असको ) ४१३७ गाथापर्यन्तम् एता दशगाथा नियुक्तिरूपा इति मत्वा स्थूलाक्षरै मुद्रितवान् मूलगाथामुद्रणे विशेषावश्यकमलधारिवृत्तिसंपादकः परन्तु एतासां नियुक्तिगतत्वे वृत्तिकारों मलधा' हे किमपि न सूचितवान्' (स्वो पृ. ८१९ ) मालवणियाजी के इस उल्लेख से यह संकेत मिलता है कि मलधारी हेमचन्द्र की टीका में ये निर्युक्तिगाथा के रूप में मुद्रित हैं पर ये निर्युक्ति की न होकर अन्यकर्तृकी या भाष्य की गाथाएं हैं।
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