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________________ १३८ आवश्यक नियुक्ति ५८८/१२. पुव्वमदिट्ठमस्सुतमवेइय', तक्खणविसुद्धगहियत्था। अव्वाहयफलजोगिणि', बुद्धी उप्पत्तिया णाम ।। ५८८/१३. भरहसिल-मिंढ-कुक्कुड, तिल-वालुग-हत्थि-अगड-वणसंडे। 'परमण्ण-पत्त-लेंडग'५, खाडहिला पंचपितरो य॥ ५८८/१४. भरहसिल-पणिय-रुक्खे, खुड्डग'-पड-सरड-काग उच्चारे। गय-घयण-गोल-खंभे, खुड्डग मग्गित्थि पति-पुत्ते ॥ ५८८/१५. महुसित्थ मुद्दियंके, य ‘नाणए भिक्खु चेडगनिधाणे। सिक्खा य अत्थसत्थे, 'इच्छा य° महं सतसहस्से ।। ५८८/१६. भरनित्थरणसमत्था, तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला। उभओ२ लोगफलवती, विणयसमुत्था हवति बुद्धी३ ॥ ५८८/१७. निमित्ते" अत्थसत्थे य, लेहे गणिए य कूव५ अस्से य। गद्दभ-लक्खण-गंठी, अगए 'गणिया य रहिए १६ य॥ ५८८/१८. सीया साडी दीहं, च तणं अवसव्वगं च कोंचस्स। 'निव्वोदए य१७ गोणे, घोडगपडणं८ च रुक्खातो॥ १. पुव्वं अदिट्ठ असुतावेतित (स्वो ६६६/३५९८), "मसुय' (नंदी ३८/२)। म, दी में ५८८/१३ एवं ५८८/१४ वीं गाथा में क्रमव्यत्यय है २. अव्वाबाह' (अ), फलजोग (म, ब), अव्वाहता फलवती (स्वो)। लेकिन इन तीनों टीकाओं की व्याख्या में पहले गा. ५८८/१३ की ३. गा. ५८८/१२-२४ ये १३ गाथाएं भी गाथा ५८८ की व्याख्या रूप हैं। तथा उसके बाद ५८८/१४ वीं गाथा की व्याख्या है अतः हमने इनमें गाथा ५८८ में वर्णित अभिप्रायसिद्ध के अन्तर्गत चार बुद्धियों स्वोपज्ञ तथा टीकाओं की व्याख्या के अनुसार गाथाओं का क्रम का स्वरूप एवं उनसे संबंधित कथाओं का निर्देश है। ये गाथाएं मुद्रित रखा है। 'नवसुत्ताणि' के अन्तर्गत नंदी में गाथा ५८८/१३ मूल रूप हा, दी, म में निगा के क्रम में हैं। चूर्णि में प्राय: सभी गाथाओं की से स्वीकृत न करके पाठान्तर में दी गयी है। व्याख्या तथा कुछ गाथाओं के संकेत भी मिलते हैं। महे में इन ६. पण (चू)।। गाथाओं का संकेत नहीं है (द्र. टिप्पण ५८८/१) । मुद्रित स्वो में ७. खड्डग (ब, स), खुड्गं नाम अंगुलीयकरत्नम् (मटी)। संपादक ने ५८८/१२, १६, १९-२३ इन सात गाथाओं को नियुक्ति ८. नंदी ३८/३, स्वो ३६०२। के क्रमांक में रखा है किन्तु ये गाथाएं निगा की नहीं होनी चाहिए ९. पणए भिक्खू य (म)। क्योंकि ५८८ वीं गाथा में वर्णित कर्मसिद्ध, शिल्पसिद्ध आदि की १०. इच्छाइ (म)। व्याख्या में वर्णित गाथाओं को जब निगा के क्रम में नहीं रखा गया ११. नंदी ३८/४, स्वो ३६०३। तो फिर केवल अभिप्रायसिद्ध (बुद्धिसिद्ध) को स्पष्ट करने वाली इन १३ १२. उभय (म)। गाथाओं को निगा की क्यों मानी जाए? अधिक संभव है कि संपादक १३. नंदी ३८/५, स्वो ६६७/३६०५ । ने ही इन्हें निगा के क्रमांक में रखा हो। ये गाथाएं बुद्धि के प्रसंग में १४. निमित्त (म, स्वो ३६०८)। यहां भाष्यकार द्वारा नंदी सूत्र (३८/१-१३) से ली गई हैं, ऐसा १५. रूव (स)। अधिक संभव लगता है क्योंकि कई गाथाओं की भाष्यकार ने व्याख्या १६. रहिए य गणिया (नंदी ३८/६) गाथा के प्रथम चरण में अनुष्टुप् छंद है। भी की है। किसी भी व्याख्याकार ने अपनी व्याख्या में इनके निगा १७. णिव्वोतए य (स्वो ३६०९), निव्वोदएण (स)। होने का संकेत नहीं किया है। हमने इन्हें निगा के क्रम में नहीं रखा है। १८. पणगं (अ)। ४. कुक्कूड (अ)। १९. नंदी ३८/७। ५. “पत्त णेण्डिय (स्वो ३६०१), पायस अइया पत्ते (हा, दी, म), हा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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