SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ आवश्यक नियुक्ति ५८३/३. अरहं ति वंदण-नमसणाणि' अरहं ति पूय-सक्कारं । सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण वुच्चंति ॥ ५८३/४. देवासुर-मणुएसुं', अरहा पूया सुरुत्तमा जम्हा। अरिणो ‘रयं च हंता'', अरहंता तेण वुच्चंति ॥ ५८४. अरहंतनमोक्कारो, जीवं मोएति भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो, होति पुणो बोधिलाभाए ॥ अरहंतनमोक्कारो', धण्णाण भवक्खयं करेंताणं । हिययं अणुम्मयंतो, विसोत्तियावारओर होइ१२ ॥ अरहंतनमोक्कारो१२, एवं खलु वण्णितो महत्थो त्ति। जो मरणम्मि उवग्गे४, अभिक्खणं कीरई बहुसो५ ।। अरहंतनमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं१६ ॥ ५८८. कम्मे सिप्पे य विजाय, मंते जोगे य आगमे। अत्थ-जत्ता-अभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय" ।। ५८८/१. कम्मं जमणायरिओवदेसज८ सिप्पमन्नहा ऽभिहितं। किसि-वाणिज्जादीयं, घड-लोहारादिभेदं च ॥ ५८७. १. णाई (हा, दी)। गाथाओं का चूर्णि में गाथा रूप में संकेत नहीं है किन्तु संक्षिप्त व्याख्या है। २. सक्कारे (म, स)। १७. स्वो ६६५/३५८५। ३. स्वो ३५६४। १८. वएसियं (म, स)। ४. मणुआणं (स्वो)। १९. स्वो ३५८६, ५८८/१-११-ये ११ गाथाएं मुद्रित हा, दी, म में निगा ५. हंता रयं हंता (हा, दी, ब, स)। के क्रम में व्याख्यात हैं। महे (३०२८) में कम्मे.....(५८८) के बाद ६. अरिहंता (अ, ला, रा)। टीकाकार ने 'एतेषां चकर्मादिसिद्धानां स्वरूपप्रतिपादनपरा: 'कम्म ७. स्वो ३५६५। जमणायरिओ' इत्यादिकाः 'न किलम्मइ जो तवसा' इति गाथापर्यन्ता ८, यह गाथा स्वो (३५६६) में भागा के क्रम में व्याख्यात है। मलधारी एकचत्वारिंशद्गाथा: सकथानकभावार्था मूलावश्यकटीकातोऽवसेया हेमचन्द ने इस गाथा के लिए इति निर्यक्तिगाथार्थः का उल्लेख इति' का उल्लेख किया है। मुद्रित स्वो में ये भागा के क्रम में हैं। चूर्णि में किया है। इन गाथाओं का संकेत नहीं है किन्तु गाथाओं में वर्णित कथाओं का ९. अरि (ला, हा)। विस्तार है। ये गाथाएं निगा की नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये ५८८ वीं १०. कुणंताणं (हा, दी, ब, स)। गाथा की व्याख्या रूप हैं। नियुक्तिकार कहीं भी अपनी गाथा की इतनी ११. विसु (ब, हा, दी)। विस्तृत व्याख्या नहीं करते हैं। ये गाथाएं भाष्य की या अन्य आचार्य द्वारा १२. स्वो ६६२/३५६९। रचित होनी चाहिए। निगा नहीं मानने का एक सबल कारण यह भी है १३. अरि" (अ. म, ला )। कि कथानकों में वर्णित आचार्य आदि पात्र काल की दृष्टि से बहुत बाद १४. उवगए (ब, स)। के हैं। इन गाथाओं को निगा के क्रम में न रखने से भी चालू विषय क्रम १५. स्वो ६६३३५७२, महे में इस गाथा के लिए नियुक्तिगाथा का संकेत में कोई अंतर नहीं आता। किसी भी व्याख्याकार ने अपनी व्याख्या में इन नहीं दिया है। गाथाओं के लिए नियुक्ति गाथा का उल्लेख नहीं किया है अतः हमने १६. स्वो ६६४/३५८१, गाथा में अनुष्टुप् छंद है, ५८६, ५८७- इन दो इनको नियुक्तिगाथा के क्रमांक में नहीं रखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy