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________________ आवश्यक नियुक्ति १३५ ५८२/९. मिच्छत्तकालियावातरहिए सम्मत्तगज्जभपवाते। एगसमएण पत्ता, सिद्धिवसहिपट्टणं पोता। ५८२/१०. निजामगरयणाणं, अमूढ- णाण-मतिकण्णधाराणं । वंदामि विणयपणतो, तिविहेण तिदंडविरताणं ॥ ५८२/११. पालंति जहा गावो, गोवा 'अहि-सावयाइदुग्गेहिं " । पउरतण-पाणियाणि य, वणाणि पावंति तह चेव ॥ ५८२/१२. जीवणिकाया गावो, जं ते पालेंति ते महागोवा। मरणादिभयाहि जिणा, निव्वाणवणं च पावंति ॥ ५८२/१३. तो उवगारित्तणतो, नमोऽरिहा भवियजीवलोगस्स। सव्वस्सेह जिणिंदा, लोगुत्तम भावतो तह य । ५८३. रागद्दोस-कसाए य, इंदियाणि य पंच वि। परीसहे उवसग्गे, नामयंता नमोऽरिहा ॥ ५८३/१. इंदिय-विसय-कसाए, परीसहे वेयणा११ उवस्सग्गे। एते अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति'२ ।। ५८३/२. अट्ठविहं पि य कम्मं, अरिभूतं होइ सव्वजीवाणं । तं कम्ममरि हता, अरिहंता तेण वुच्चंति१२ ॥ १. वायविरहिए (ब, म, हा, दी), 'रहित (स्वो)। २. °भप्पवाए (स), "गज्जह (म, स्वो ३५०२)। ३. मयक' (म)। ४. स्वो ३५०४। ५. सावतभयातिदुग्गेहि (स्वो ३५०५)। ६. तो (स्वो)। ७. भया उ (हा, दी, म, रा)। ८. जेव्वाण (स्वो ३५०६)। ९. यह गाथा महे और स्वो में नहीं है। १०. स्वो ६६१/३५०७, इस गाथा के बाद ब प्रति में 'गाथापंचक ऽन्याऽव्या' उल्लेख के साथ पांच अन्यकर्तकी गाथाएं मिलती हैं। हा, दी और म में ये उद्धृत गाथा के रूप में हैं रज्जति असुभकलिमल-कुणिमाणिडेसु पाणिणो जेणं। रागो त्ति तेण भण्णइ, जं रजइ तत्थ रागत्थो ॥१॥ अरहंतेसु य रागो, रागो साहस बंभयारीस्। एस पसत्थो रागो, अज सरागाण साहूणं ॥२॥ गंगाए नाविओ नंदो, सभाए घरकोइलो। हंसो मयंगतीराए, सीहो अंजणपव्वए ॥३॥ वाणारसीइ बडुओ, राया तत्थेव आगओ। एएसिं घायगो जो उ, सो वि एत्थ समागओ॥४॥ किं एत्तो कट्ठयरं, जं मूढो खाणुगम्मि अप्फिडिओ। खाणुस्स तस्स रूसइ, न अप्पणो दुप्पओगस्स ॥५॥ ११. णाओ (म)। १२. उच्चति (स्वो ३५६२),५८३/१-४ ये चारों गाथाएं मुद्रित हा, दी, म में निगा के क्रम में व्याख्यात हैं। सभी हस्तप्रतियों में भी ये गाथाएं मिलती हैं। मुद्रित स्वो में ये भागा के क्रम में व्याख्यात हैं। महे में ये गाथाएं अनुपलब्ध हैं। ५८३/१ की गाथा ५८३ की संवादी है अतः यह भाष्य गाथा होनी चाहिए क्योंकि भाष्यकार नियुक्तिगाथा की व्याख्या करते हैं। ५८३/२-४ ये तीन गाथाएं भी निरुक्तिपरक एवं व्याख्यात्मक हैं अतः निगा की नहीं होनी चाहिए। चूर्णि में केवल गाथा ५८३/३ का संकेत मिलता है। अन्य तीन का संकेत व व्याख्या नहीं मिलती। इन गाथाओं को नियुक्तिगाथा के क्रम में न रखने से भी ५८३ के बाद ५८४ वीं गाथा का संबंध विषयवस्तु की दृष्टि से ठीक बैठता है। १३. उच्चंति (स्वो ३५६३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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