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________________ आवश्यक निर्युक्ति ५६५/१५. अप्पग्गंथ महत्थं, बत्तीसा दोसविरहियं लक्खणतं सुतं, अट्ठहि य गुणेहि Jain Education International ५६५/१६. अलियमुवघायजणयं निरत्थयमवत्थयं छलं निस्सारमधियमूणं, पुणरुत्तं ५६५ / १७. कमभिण्ण-वयणभिण्णं, विभत्तिभिण्णं च अणभिहियमपयमेव य, सभावहीणं ५६५/१९. उवमा-रूवगदोसा, ५६५ / १८. काल - जति - च्छविदोसा, समयविरुद्धं च वयणमेत्तं अत्थावत्ती दोसो, य होति असमासदोसो ५६५/२०. निद्दोसं ५६६. एते उ सुत्तदोसा, ५६५/२१. अप्पक्खरमसंदिद्धं, ५६७. च, सारवंतं उवणीतं सोवयारं च, मितं अत्थोभमणवज्जं च, १. ५६५/१५ - २१ ये सात गाथाएं मुद्रित हारिभद्रीय एवं मलयगिरी की टीका में निगा के क्रम में व्याख्यात हैं किन्तु ये गाथाएं निगा की प्रतीत नहीं होतीं क्योंकि स्वो, महे, चूर्णि एवं दीपिका में इन गाथाओं का कोई संकेत एवं व्याख्या नहीं मिलती है। यहां सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति का अवसर है अतः अधिक संभव है कि सूत्र की विशेषता एवं दोष बताने वाली ये गाथाएं अन्य आचार्यों या लिपिकर्ताओं द्वारा निशीथभाष्य अथवा बृहत्कल्पभाष्य से बाद में जोड़ दी गई हों। गाथा ५६५ / १५ स्वो में ९९४ भागा के क्रमांक में है। उसके बाद ५६५/१६-१९ ये चार गाथाएं स्वो में उद्धृत गाथा के रूप में हैं। ५६५ / २०, २१ ये दो गाथाएं स्वो (९९५, ९९६) में भागा के क्रमांक में हैं। (स्वो पृ. १८६ - १८८ ) महेटी में ५६५ / १५ की गाथा ९९९ भागा के क्रम में तथा ५६५/१६-२१ ये छहों गाथाएं उद्धृत गाथा के रूप में हैं। देखें (महेटी पृ. २३१-३३) हाटी एवं मटी में टीकाकार ने अपनी ५- पदत्थ- संधिदोसो य । निद्देस' - बत्तीसं होंति णायव्वा ॥ २. ३. सारवं सुतं ४. ५. जं च । उववेतं ' ॥ 'दोसो (म) । मित्तं (हा ) । दुहिलं । वाहयजुत्तं ॥ उप्पत्ती निक्खेवो, पदं पयत्थो परूवणा वत्थू । अक्खेव' पसिद्धि कमो, पयोयणफलं नमोक्कारो ॥ उपाऽणुप्पो, एत्थ नयाऽऽइनिगमस्सऽणुप्पण्णो । सेसाणं उप्पण्णी, जइ कत्तो ? तिविधसामित्ता ॥ लिंगभिण्णं च । ववहियं च ॥ ७. स्वो ९९६ । ८. ९. अत्थेव (स) । च । य ॥ हेतुजुत्तमलंकितं । महुर यः ॥ व्याख्या में कहीं भी इन गाथाओं के निर्युक्ति होने का संकेत नहीं किया है। हस्तप्रतियों में भी ये गाथाएं नहीं मिलती हैं। हमने इनको निर्युक्तिगाथा के क्रम में नहीं रखा है। For Private & Personal Use Only विस्सतोमुहं । सव्वण्णुभासितं ॥ दोसो (रा, ब ) । हाटी में अनिद्देस (अनिर्देश) शब्द मानकर व्याख्या की है। (हाटी पृ. २५१) । ६. स्वो ९९५ । वत्युं (स्वो, हा, महे, दी ) । १३१ १०. नमु (ब, म, महे), स्वो ६४४/३३३५ । ११. णेगमस्स (महे, स्वो ६४५ / ३३३६), 'इनेगमम्स (म) । www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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