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________________ आवश्यक नियुक्ति १२९ ५६५. दमदंते मेयज्जे, कालगपुच्छा चिलाय अत्तेय' । धम्मरुइ इला 'तेतलि सामइए'२ अट्ठदाहरणा ॥ ५६५/१. वंदिज्जमाणा न समुक्कसंति', हीलिजमाणा न समुज्जलंति। दंतेण चित्तेण चरंति धीरा', मुणी समुग्घातियरागदोसा ॥ ५६५/२. तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसु॥ ५६५/३. नत्थि य सि कोइ वेसो, पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु। एतेण होति समणो, एसो अण्णो वि पज्जाओ । ५६५/४. जो कोंचगावराधे, पाणिदया" कोंचगं तु णाइक्खे। जीवियमणपेहतं२, मेतजरिसिं नमसामि॥ ५६५/५. निप्फेडिताणि दोण्णि वि, सीसावेढेण जस्स अच्छीणि। न य संजमाउ१३ चलितो, मेतज्जो मंदरगिरिव्व४ ॥ १. पुत्तेय (ब)। २. “सामा (हा, दी, ला), तेयल समाइए (महे)। ३. स्वो ६४३/३३१२, इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'निक्खंतो हस्थिसीसा'गाथा मिलती है। प्रतियों में भा ऽव्या का उल्लेख है। हा, दी, म ___ में भी यह मूल भाष्य के क्रम में व्याख्यात है। (हाटीमूभा १५१, स्वो ३३१३) ४. समुण्णमंति (स्वो)। ५. लोए (स, स्वो ३३१४)। ६. ५६५/१-१४ ये चौदह गाथाएं नियुक्ति की नहीं होनी चाहिए। मुद्रित स्वो और महे में भी ये निगा के क्रम में नहीं हैं। मालवणियाजी ने इनको भाष्यगाथा के क्रम में रखा है। महे (पृ. ५५६) में ५६५ गाथा के बाद 'इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः', विस्तारार्थस्तु दमदन्तादिमहर्षिकथानकसूचिकाभ्यो निक्खंतो हथिसीसाओ' इत्यादिकाभ्यः 'पच्चक्खं दट्टणं' इत्यादिगाथापर्यन्ताभ्यः सप्तदशगाथाभ्यो मूलावश्यकलिखितविवरणसहिताभ्यो मंतव्यः" का उल्लेख है। चूर्णि में ५६५/१-३ इन तीन गाथाओं के संकेत एवं व्याख्या नहीं मिलती है। वहां ५६५/१२, १३ (सोऊण अणाउट्टी, परिजाणिऊण जीवे) इन दो गाथाओं का संकेत है। अधिक संभव है कि मुद्रित चूर्णि में इन दो गाथाओं के संकेत संपादक द्वारा जोड़ दिये गए हैं। ५६५/४-१४ इन ग्यारह गाथाओं में उल्लिखित कथा चूर्णि में मिलती इन गाथाओं को निगा नहीं मानने का सबसे बड़ा कारण यह है कि ५६५ की गाथा में चारित्र सामायिक के अन्तर्गत आठ कथाओं का संकेत है। उनमें प्रथम दमदंत की कथा वाली गाथा को सभी व्याख्याकारों ने भाष्य की मानी है अतः आगे मेतार्य, कालकाचार्यपृच्छा आदि की कथाओं वाली गाथाओं को नियुक्ति की क्यों मानी जाए? वैसे भी नियुक्तिकार केवल कथाओं का संकेत करते हैं, विस्तृत व्याख्या नहीं। ५६५/१-३ ये तीनों गाथाएं समण के स्वरूप को व्यक्त करने वाली हैं। ये यहां अप्रासंगिक सी लगती हैं अत: बहुत संभव है कि ये अनुयोगद्वार से अन्य आचार्यों द्वारा या लिपिकर्ताओं द्वारा बाद में जोड़ दी गई हों। इनमें गा. ५६५/२, ३ ये दो गाथाएं अनुयोगद्वार की हैं। ७. अनुद्वा ७०८/६, स्वो ३३१७, स्वो में गा. ५६५/२ और ३ में क्रमव्यत्यय है। ८. वेस्सो (स्वो)। ९. अनुद्वा ७०८/४, स्वो ३३१६ । १०. कुंच (म, ब)। ११. प्राणिदयया हेतुभूतया सूत्रे विभक्तिलोप: आर्षत्वात् (मटी ४७८)। १२. मणुवे (म), "मणवेहंते (स्वो ३३१८)। १३. "माओ (म, ब)। १४. स्वो ३३१९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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