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________________ ६८ आवश्यक नियुक्ति २३६. नवमो य महापउमो, हरिसेणो चेव रायसढूलो। जयनामो य नरवती, बारसमो बंभदत्तो य॥ २३६/१. पउमाभ-वासुपुज्जा, रत्ता ससि-पुप्फदंत ससि-गोरा। सव्वयनेमी काला, पासो मल्ली पियंगाभा॥ २३६/२. 'वर-कणगतवियगोरा'३, सोलसतित्थंकरा मुणेयव्वा। एसो वण्णविभागो, चउवीसाए जिणवराणं ।। २३६/३. पंचेव अद्धपंचम, चत्तारऽद्भुट्ठ तह तिगं चेव। अड्डाइज्जा दोण्णि य, दिवड्डमेगं धणुसतं च ॥ २३६/४. नउई असीइ सत्तरि, सट्ठी पण्णास होति नायव्वा। पणयाल चत्त पणतीस, तीस पणवीस वीसा य॥ २३६/५. पण्णरस दस धणूणि य, नव पासो सत्तरयणिओ वीरो। नामा पुव्वुत्ता खलु, तित्थगराणं मुणेयव्वा ॥ २३६/६. मुणिसुव्वओ य अरिहा, अरिट्ठनेमी य गोयमसगोत्ता। सेसा तित्थगरा खलु, कासवगोत्ता मुणेयव्वा॥ २३६/७. इक्खागभूमि उज्झा, सावत्थि विणीय कोसलपुरं च। कोसंबी वाणारसि, चंदाणण तह य काकंदी॥ १. स्वो २९९/१७४५, समप्र २३६/२, इस गाथा के बाद होहिंति से लेकर एते खलु तक की पांच गाथाएं सभी हस्तप्रतियों में मूभा. व्या. उल्लेख के साथ मिलती हैं। (स्वो १७४६-५०) एवं (को १७५९-६३) में भी ये भागा के क्रम में हैं। (हाटीभा ३९-४३) तथा (मटीभा. ३९-४३) में ये भाष्य गाथा के क्रम में मिलती हैं। चूर्णि में चक्किदुगं (गा.२४२)के बाद इन सभी गाथाओं का संकेत मिलता है। २. २३६/१-४० तक की ४० गाथाएं हा, म, दी में निगा के क्रम में व्याख्यात हैं किन्तु दोनों भाष्यों में यह निगा के रूप में संकेतित नहीं हैं। इन गाथाओं में तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती आदि के वर्ण, प्रमाण, संस्थान आदि का वर्णन है। चूर्णिकार ने मात्र इतना उल्लेख किया है-'तेसिं वण्णो पमाणं णाम.....वत्तव्वया विभासियव्वा।' ये सब गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त सी लगती हैं क्योंकि नियुक्तिकार संक्षिप्त शैली में अपनी बात कहते हैं। ये सभी गाथाएं स्वो में टिप्पण में दी हुई हैं। इनमें २३६/१७, १८, २०, २१,२६, २८, ३०, ३८, ३९, ४०-ये १० गाथाएं स्वो एवं को में भाष्य गाथा के क्रम में हैं तथा चूर्णि में भी इन गाथाओं का संकेत मिलता है। टीका, भाष्य एवं चूर्णि की गाथाओं में बहुत अधिक क्रम व्यत्यय मिलता हैं। इन सभी गाथाओं को निगा के क्रम में न रखने पर भी २३६ वीं गाथा विषयवस्तु की दृष्टि से गा. २३७ से जुड़ती है। ३. वरतवियकणग' (अ, ला)। ४. इस गाथा के बाद प्रायः सभी हस्तप्रतियों में अन्या. व्या. उल्लेख के साथ निम्न अन्यकर्तृकी गाथा मिलती है उसभी पंचधणुसयं, नव पासो सत्तरयणिओ वीरो। सेस? पंच अट्ठ य, पण्णा दस पंच परिहीणा॥ ५. सावत्थी (ब, स, दी, हा)। ६.विणिय (अ, हा, दी)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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