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प्राकृत भाषा की विदुषी समणी हैं। उन्होंने अपने समस्त वैदुष्य को आवश्यक सूत्र पर लिखी प्रथम व्याख्या आवश्यक नियुक्ति के संपादन में फलीभूत किया है। आगम एवं उससे संबंधित व्याख्या साहित्य का संपादन कार्य कठिन एवं श्रम-साध्य तो है ही, साथ ही इसमें संबंधित विषय की भाषा-शैली और विषयवस्तु का गहन ज्ञान भी आवश्यक है। विभिन्न हस्तलिखित आदर्शों में जो पाठान्तर प्राप्त होते हैं, उनकी प्रासंगिकता और उनके पौर्वापर्य का विमर्श कर मूल पाठ का निर्धारण संपादक की सूक्ष्म मनीषा का परिचायक है। समणी श्री कुसुमप्रज्ञा ने गूढ, नीरस, दुरूह शोधकार्य के दायित्व को अपनी बौद्धिक विनयशीलता, निष्ठाशील अध्यवसायी चेतना, ज्ञानगम्भीरता एवं समरसता के लय से जिस तरह निर्विघ्न संपादित किया है, अनुसंधान और अनुशीलन के क्षेत्र में यह भावी पीढ़ी के लिए नए पदचिह्न बनेगा। एक ही शब्द का अनुवाद प्रसंगानुसार परिवर्तित भी होता अतः आगमों का अनुवाद भी अत्यन्त श्रमसाध्य कार्य है। अनुवाद कार्य में मुनि श्री दुलहराजजी का श्रम एवं सहयोग उल्लेखनीय एवं प्रशंसनीय रहा है। ग्रंथ विद्वानों के मध्य पहुंचकर चिंतन-मनन का केन्द्र बिन्दु बने, इससे समणी कुसुमप्रज्ञा प्रयत्न की सार्थकता बढ़ेगी। ऐसा प्रयास ही वस्तुतः एक सर्वस्वीकार्य और साधु प्रयत्न होता है, जिसके अन्तर्गत विचार-विनिमय का मार्ग खुलता है तथा आचार-विचार, भाषा तथा भावों की सूक्ष्मताओं को समझने और समझाने का अवकाश मिलता है। वस्तुतः यह विद्वानों के चिन्तन को आकर्षित करने का साधु प्रयास है। ऐसे गुरुतर कार्य को करने के लिए समणीजी बधाई व साधुवाद की पात्र हैं। हम आशा करते हैं कि आप इसी प्रकार आगम- परम्परा के व्याख्या साहित्य पर काम करके जैन विद्या की सूक्ष्मताओं से सामान्य तथा विद्वज्जन समुदाय को परिचित कराती रहेंगी।
अंत में मैं आचार्यप्रवर महाप्रज्ञजी को पूर्ण श्रेयोभागी मानकर यह कहना चाहता हूं कि वे स्वयं महाप्रज्ञा के धनी हैं और अपने संघ को भी गुरुतर कार्यों में नियोजित कर उसमें प्रज्ञा का अवतरण करना चाहते हैं। वे अपने इस प्रयास में अत्यंत सफल हुए हैं और हो रहे हैं। शुभं भवतु ।
लाडनूं १६ जुलाई, २००१
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प्रो. भोपालचन्द लोढा कुलपति, जैन विश्वभारती संस्थान, (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं - ३४१३०६
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