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क्रियाकोष
पूजा विधि कर श्रावक सोइ, भोजन वेला मुनि अवलोइ । जिन मंदिरतें तब निज गेह, एक ठाम अण पाणी लेह ॥४४९ ॥ मध्याह्निक 'समया को धारि, करै प्रतग्या सुबुद्धि विचारि । षोडश पहर लेइ मरयाद, चौविह हार छांडि परमाद ||४५०॥
खादि स्वादि लेई अरु पेय, अतीचार ते सबहि तजेय । दुपटी धोती विधिवत लेइ, अवर वस्तु तनसौं तजि देइ || ४५१॥ स्नानादिक भूषण परिहरै, अंजन तिलक व्रती नहि करै । जिनमंदिर वन उपवन ठांहि, अथवा भूमि मसांणहि जाहि ॥ ४५२॥ षोडश जाम ध्यान जो धरै, धरम कथा जुत तहि अनुसरै । पंच पाप मन वच क्रम तजै, श्री जिन आज्ञा हिरदै भजै ॥४५३ ॥ धरमकथा गुरु मुखतें सुणै, आप कहै निज आतम मुणै । निद्रा अलप पाछिली राति, है नौमी पून्यो परभाति ||४५४॥ मरयादा पूरव गुणधार, जिनमंदिर आवै निज द्वार । द्वारापेखण परिचित धारि, खडो रहे निज घरिके बार ||४५५ ॥ पात्रदान दे अति हरषाय, एका भुक्ति करै सुखदाय । पारण दिन पिछली छह जाम, च्यारि अहार तजै अभिराम ॥ ४५६ ॥
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बैठ कर अन्न पानी ग्रहण करे अर्थात् एकाशन करे || ४४८- ४४९ ।। तदनन्तर मध्याह्नकी सामायिक कर विचारपूर्वक प्रोषधोपवासकी प्रतिज्ञा करे । सोलह प्रहरकी मर्यादा लेकर तथा प्रमाद छोड़कर खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय, इन चारों प्रकारके आहारका निरतिचार त्याग करे । शरीर पर धोती दुपट्टा धारण कर अन्य सब वस्तुओंका परित्याग कर दे ।। ४५०-४५१ ।। स्नान, आभूषण, अंजन तथा तिलक आदि नहीं करे। जिनमंदिर, वन, उपवन अथवा स्मशान भूमिमें जाकर सोलह प्रहरका ध्यान करे । धर्मकथा करते हुए ध्यानके समयको पूरा करे । पाँच पापोंका मन, वचन, कायसे त्याग करे, श्री जिनेन्द्र देवकी आज्ञाको हृदयमें धारण करें, गुरुके मुखसे धर्मकथा सुने अथवा स्वयं धर्मकथा करे और अपने आत्माका मनन करे । पिछली रात्रिमें थोड़ी निद्रा ले । जब नवमी अथवा पूर्णिमाका प्रभात हो तो पूर्व प्रतिज्ञाके अनुसार जिनमंदिर जाकर पूजा करे । पश्चात् घर आकर द्वाराप्रेक्षण करता हुआ घरके बाहर खड़ा रहे । पात्रदान देकर अत्यन्त हर्षित हो स्वयं एकभुक्ति - एकाशन करे । पश्चात् पारणाके दिनके जो छह प्रहर शेष रहे हैं उनमें चार प्रकारके आहारका त्याग करे ।।४५२ - ४५६ ।। यह उत्कृष्ट प्रोषधकी विधि कही है । यह उत्कृष्ट उपवास कर्मसमूहका नाश करता है । इसे करनेवाला मनुष्य देवगतिके सुख प्राप्तकर क्रमसे मोक्षको प्राप्त होता है, ऐसा सत्यवादी जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥ ४५७ ||
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१ सामायिक धारि स० २ वसन न०
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