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श्री कवि किशनसिंह विरचित
इह उतकिष्ट कह्यौ उपवास, करै कर्मगणको 'अति नास । सुरसुख लहि अनुक्रमि सिव लहे, सत वायक इह जिनवर कहे ॥ ४५७॥ कहुं मध्यम उपवास विचार, षट् कर्मोपदेश अनुसार । प्रथम दिवस एकंत करेय, घरी दोय दिनतें जल लेइ ॥ ४५८ ॥ जिनमंदिर अथवा निजगेह, पोसह द्वादश पहर धरेह । धर्मध्यानमें बारा जाम, गमिहै घरिके तजि सब काम ॥ ४५९॥ जा विधि दिवस धारणै जाणि, सोही दिन पारणै वखाणि । तीन दिवस लौं पालै शील, सो सुरके सुख पावै लील ॥४६०॥ जघन्य वास भवि विधि सौं करौ, प्रथम दिवस इह संख्या धरौ । पछिलो दिवस घडी दोय रहै, ता पीछें पाणी नहि गहै || ४६१॥ निसिको शील व्रत पालियै, प्रात समय पोसो धारियै । आठ पहर ताकी मरयाद, धरम ध्यान जुत तजि परमाद ||४६२॥ दिवस पारणै निसि जल तजै, वासर तीन शील व्रत भजै । प्रोषध तो उतकिष्ट हि जाणि, मध्यम जघन्य उपवास वखाणि ॥ ४६३ ॥ त्रिविधि वासकौं जो निरवहै, सो प्राणी सुरके सुख लहै ।
अब याको जे हैं अतिचार, कहूं जिनागमतें निरधार ॥ ४६४॥
अब षट्कर्मोपदेश- श्रावकके छह कर्मोंका उपदेश - देनेवाले श्रावकाचारके अनुसार मध्यम उपवासका विचार करते हैं । उपवासके पूर्व दिन एकाशन करे, पश्चात् जब दो घड़ी दिन रह जाय तब जल लेकर जिनमंदिर अथवा अपने ही घर बारह प्रहरके उपवासका नियम धारण करे । घरके सब काम छोड़कर बारह प्रहर धर्मध्यानमें व्यतीत करे ।। ४५८ - ४५९ ।। जो विधि धारणाके दिनकी कही है वही पारणाके दिनकी कही गई है। तीन दिन तक शील व्रत- ब्रह्मचर्यका पालन करे । इस मध्यम उपवासको करनेवाला अनायास ही देवगतिके सुख प्राप्त करता है ||४६०॥
जघन्य उपवासको भी भव्यजीव विधिपूर्वक धारण करे । उसकी विधि इस प्रकार है- - जब दिनमें दो घड़ी शेष रह जावे तबसे अन्न पानीका त्याग कर दे । रात्रिमें शीलव्रतका पालन करे । पर्वके प्रातःकाल उपवासका नियम लेवे । उसकी मर्यादा आठ प्रहरकी होती है । आठ प्रहर तक प्रमाद छोड़कर धर्मध्यानमें समय व्यतीत करना चाहिये ||४६१-४६२ ।। पारणाके दिन रात्रिजलका त्याग करे तथा तीन दिन शीलव्रतका पालन करे । ग्रंथकार कहते हैं कि प्रोषधोपवास तो उत्कृष्ट ही कहलाता है, मध्यम और जघन्य उपवास कहलाते हैं । जो प्राणी इन तीनों प्रकारके उपवासों का पालन करते हैं वे देव गतिके सुख प्राप्त करते हैं । अब इस व्रतके जो अतिचार हैं उनका जिनागमके अनुसार कथन करते हैं । ४६३-४६४॥
१ है नास न० स०
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