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श्री कवि किशनसिंह विरचित
तिहुं काल करै सामायक, सब जीवनिकौं सुखदायक । सामायिक करता प्राणी, उपचार मुनी सम जाणी ॥४४२॥ सामायिक दृग जत करिहै, उतकृष्ट देवपद धरिहै । अनुक्रम पावै निरवाण, यामैं कछु फेर न जाण ॥४४३॥ मुनि द्रव्यलिंगको धारी, सामायिक बल अनुसारी । कहांलौं करिये जु बडाई, नव ग्रीवां लग सो जाई॥४४४॥ यातें भविजन तिहं काल, धरिये सामायिक चाल । जातें फल पावै मोटो, नसि जाय करम अति खोटो ॥४४५॥ द्वितीय शिक्षाव्रत प्रोषधोपवासका वर्णन
चौपाई सामायिक व्रत कह्यौ वखाणी, अब प्रोषधव्रतकी सुन वाणी । एक मासमें परव जु चार, दुइ आठे दुइ चौदसि धारि ॥४४६॥ इन दिनमें प्रोषध विसतरें, ते वसु कर्म निर्जरा करें । वे जिनधर्म विर्षे अति लीन, वे श्रावक आचार प्रवीन ॥४४७|| अब प्रोषधकी विधि सुनि लेह, भाष्यों जिन आगममें जेह । सातें तेरसके दिन जानि, जिन श्रुत गुरु पूजाको ठांनि ।।४४८॥
कर लेना चाहिये ॥४४१॥ सामायिक तीनों काल करना चाहिये। सामायिक सब जीवोंको सुखदायक है । सामायिक करनेवाला प्राणी उपचारसे मुनिके समान है। जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे युक्त होकर सामायिक करता है वह उत्कृष्ट देवपदको प्राप्त होता है और क्रमक्रमसे निर्वाणपद पाता है इसमें कुछ भी अंतर नहीं जानना चाहिये। सामायिककी प्रशंसा कहाँ तक की जावे ? सामायिकके बलसे द्रव्यलिंगी मुनि नवम ग्रैवेयक तक जाता है। इसलिये हे भव्यजीवों ! तीनों काल सामायिक करो, जिससे विशाल फलकी प्राप्ति हो और खोटे कर्म नष्ट हो जावें ॥४४२-४४५।।
आगे द्वितीय शिक्षाव्रत प्रोषधोपवासका वर्णन करते हैं
अब तक सामायिक व्रतका व्याख्यान कहा, अब प्रोषधव्रतकी बात सुनो। एक मासमें दो अष्टमी और दो चतुर्दशी, इस प्रकार चार पर्व होते हैं। इन पर्वके दिनोंमें जो प्रोषधव्रत करते हैं वे आठों कर्मोंकी निर्जरा करते हैं। प्रोषध करनेवाले जिनधर्ममें लीन रहते हैं तथा श्रावकाचारमें प्रवीण कहलाते हैं ॥४४६-४४७॥ अब प्रोषधकी विधि जैसी जिनागममें कही है उसे सुनो। सप्तमी और त्रयोदशीके दिन जिनदेव शास्त्र और गुरुकी पूजा करे। पूजाके बाद श्रावक भोजनके समय मुनियोंका द्वाराप्रेक्षण करे, पश्चात् जिनमंदिरसे अपने घर जाकर एक स्थान पर
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