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________________ ६६ श्री कवि किशनसिंह विरचित जेती सामग्री भोग, अथवा उपभोग नियोग । परनर जो मोल गहांही, निज अधिको मोल चढाही ॥४१४॥ लोलुपता अति ही ठानै, हठ करिस्यौं अपनो आनै । 'इह पंचम दोष सुठीक, यामें कछु नाहि अलीक ॥४१५॥ भणिया ए पण अतिचार, बुधजन मन धरि सुविचार । नित ही इनकौं जो टाले, मन वच क्रम व्रत सो पालै ॥४१६।। इह कथन सबै ही भाख्यौ, जिनवाणी माफिक आख्यौ । जो परम विवेकी जीव, इनकौ करि जतन सदीव ॥४१७॥ जे अनरथदण्ड लगावै, ते अघको पार न पावै । अघ महा कुगतिको दाई, भव भांवरी अंत न थाई॥४१८॥ वच भाषै लागे पाप, ऐसो न करै हु अलाप । मन वच तन व्रत जे पालैं, वे सुरगादिक सुख भालै ॥४१९॥ अनुक्रमि सिव थानक पावै, कबहूं नहि भवमें आवै । सुख सिद्धतणा जु अनंत, भुगतै जो परम महंत ॥४२०॥ दोहा गुणव्रत लखि इह तीसरो, अनरथदंड सु जाणि । कथन कह्यौ संक्षेपते, किसनसिंघ मन आणि ॥४२१॥ भोग-उपभोगकी वस्तुओं पर जो मूल्य पड़ा हुआ है उसे काट कर अधिक मूल्य चढ़ाना, अधिक लोभ करना और हठसे मनमानी करना यह भोगोपभोगानर्थक्य नामका पाँचवाँ अतिचार है। इसका ठीक निर्णय करना चाहिये ॥४१४-४१५॥ अनर्थदण्ड व्रतके ये पाँच अतिचार कहे गये हैं। ज्ञानीजन इनका मनमें विचार कर निरन्तर इन्हें टाले और मन वचन कायसे व्रतका निर्दोष पालन करें। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह सब कथन जिनवाणीके अनुसार किया गया है। जो परम विवेकी जीव हैं वे इनका सदा यत्न करते हैं अर्थात् अतिचार टालनेका ध्यान रखते हैं। जो अनर्थदण्ड करते हैं उनके पापका पार नहीं है। पाप महासंसारको देनेवाला है। उनके भवभ्रमणका अन्त नहीं होता ॥४१६-४१८॥ जिस वचनके कहनेसे पाप लगता हो ऐसा वचन कभी नहीं बोलना चाहिये । जो मनुष्य मन वचन कायसे व्रतका पालन करते हैं वे स्वर्गादिकके सुख भोगते हैं, अनुक्रमसे मोक्षमें जाते हैं और लौट कर संसारमें कभी नहीं आते। वे परमात्मा सिद्धोंका अनन्त सुख भोगते रहते हैं ॥४१९-४२०॥ ग्रन्थकर्ता श्री किशनसिंहजी कहते हैं-यह अनर्थदण्डव्रत तीसरा गुणव्रत है, इसका संक्षेपसे हमने कथन किया है ॥४२१॥ १ इमि स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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