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क्रियाकोष
दोहा
जो इस व्रतकौं पालिहै, मन वच काय सुजाण । सो निहचै सुरपद लहै, यामें फेर न जाण ॥ ४०७ || विणु कारज ही सबनिको, दोष लगावै कोय | ताके अघके कथनकौ, कवि समरथ नहि होय ||४०८ || अघसैं नरकादिक लहै, इह जानो तहकीक । अतीचार या विरतको सुनौ पांच इह ठीक ॥ ४०९ ॥ अनर्थदण्डव्रतके अतिचार
छन्द चाल
अति हास कुतूहलकार, मनमांही सोच विचार । इह अतीचार इक जाणी, जिन आगम को वखाणी ॥ ४१० ॥ क्रीडा उपजावन काम, बहु कलह करै दुखधाम । नृत्यादिक देखण चाव, वादीगर लखि यह दाव || ४९९ ॥ मुखतै बहु गाली देई, वच ज्यों त्यों ही भाषेई । इह अतीचार भणि तीजो, बुध त्यागहु ढील न कीजो || ४१२॥ मनमें चिंतै कोई काम, इतनौं करस्थों अभिराम | तातै अधिकौ जु कराई, दूषण इह चौथो थाई ॥ ४१३ ॥
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ग्रन्थकार कहते हैं कि जो ज्ञानी मनुष्य, मन वचन कायसे इस व्रतका पालन करते हैं वे देवपद प्राप्त करते हैं इसमें संशय नहीं जानना चाहिये । जो कोई बिना प्रयोजन ही सबको दोष लगाता है उसके पापका कथन करनेके लिये कोई समर्थ नहीं है । उस पापके फलस्वरूप वे नरकादि गतियोंको प्राप्त होते हैं यह निश्चित जानना चाहिये। आगे इस व्रतके पाँच अतिचारोंका वर्णन करते हैं, उन्हें सुनो ।।४०७-४०९।।
कुतूहलवश मनमें सोच विचार कर अत्यधिक हँसीके वचन कहना यह कंदर्प नामका पहला अतिचार है । क्रीडा-कुतूहलके कारण तीतुर तथा मेंढ़ा आदिकका दुःखदायक युद्ध कराना तथा नृत्यादिक देखनेकी अभिलाषासे वादीगर आदिकी कलाओंको देखना, यह कौत्कुच्य नामका दूसरा अतिचार है ।।४१० - ४११॥ मुखसे गाली देना और जैसे तैसे निरर्थक वचन बोलना यह मौर्य नामका तीसरा अतिचार है । ज्ञानीजनोंको इसका शीघ्र ही त्याग करना चाहिये ॥ ४१२॥ मनमें किसी कामका विचार करना कि मैं इतना करूँगा, पश्चात् उससे अधिक करना कराना यह असमीक्ष्याधिकरण नामका चौथा अतिचार है ॥४१३||
१ सब कोय स० २ अतीचार ए पंच हैं, फेर न जानो सोय स०
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