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________________ ६४ श्री कवि किशनसिंह विरचित " बहुजन तणो मनावै भलो होला डेंहगी खावें चलो । बिरा बाजरा अवर जुवारि, फलही भाजी सबनि पचारि ॥ ३९९॥ चलो साथि लै जैहै खेत, वस्त खुवायनिको मन हेत । अनरथ दण्ड न जाणै भेद, पाप उपाय लहै बहु खेद ||४००॥ सुवा कबूतर मैंना जाण, तूती बुलबुल अघकी खाण । पंखिया और जनावर पालि, राखै बंदि पींजरै घालि ॥४०१ ॥ इनि पालेको पाप महंत, अनरथदंड जाणियै संत । कूकर वांदर हिरण बिलाव, मींढादिक रखिये धरि चाव ॥४०२॥ पालि खिलावै हरषि धरेय, अनरथदंड पाप फल लेई । मन हुलसै चित्राम कराय, त्रस जीवन सूरति मंडवाय ॥ ४०३ ॥ हस्ती घोटक मींडक मोर, हिरण चौपद पंखी और । कपडा लकडी माटी तणा, पाषाणादिक करिहै घणा ||४०४ || जीव मिठाई करि आकार, करै विविधके हीण गमार । तिणिको मोल लेई जन घणा, बांटै परघरमें लाहणा ||४०५ ॥ इह प्रमादचर्या विधि कही, अनरथ दंड पापकी मही । जो न लगावे इनको दोष, सो धरमी अघ करिहै शोष ॥ ४०६ ॥ फल, तथा सब प्रकारकी भाजी आदि खावें । इस प्रकार अनेक लोगोंको साथ ले कर खेत पर जावे तथा वहाँ अनेक वस्तुएँ खिलावे, ये सब अनर्थदण्डके भेद हैं । इन्हें जाने बिना पाप उपार्जन कर अज्ञानी जीव बहुत दुःख प्राप्त करते हैं ।। ३९९-४००।। कितने ही लोग तोता, कबूतर, मैना, तूती, बुलबुल, पापकी खान स्वरूप पक्षियों तथा अन्य जन्तुओंको पालकर पिंजड़े में बन्द रखते हैं । इनके पालनेका महान पाप होता है । इसे अनर्थदण्ड जानना चाहिये। कितने ही लोग कुत्ता, बन्दर, हरिण, बिलाव तथा मेंढ़ा आदिकको बडी शौकसे पालकर रखते हैं, उन्हें खिलाते तथा हर्षित होते हैं। वे भी अनर्थदण्डका फल प्राप्त करते हैं। कितने ही लोग मनोरंजनके लिये त्रस जीवोंके चित्र बनवाते हैं, उनकी आकृतियाँ मढवा कर रखते हैं। जैसे हाथी, घोड़ा, मेंढ़ा, मोर, हरिण आदि चौपाये और पक्षी आदिकी आकृतियाँ बनवाते हैं । ये आकृतियाँ कपड़ा, लकड़ी, मिट्टी तथा पत्थर आदिकी बनाई जाती हैं । कितने ही अज्ञानी लोग मिठाईके रूपमें इन जीवोंकी आकृतियाँ बनवाते हैं, लोग इन्हें मूल्य देकर खरीद ले जाते हैं और दूसरोंके घर उपहारके रूपमें बाँटते हैं । यह सब प्रमादचर्या अनर्थदण्डका निरूपण किया । यह अनर्थदण्ड पापकी भूमि है । जो इन दोषोंको नहीं लगाते हैं वे धर्मात्मा हैं तथा पापका शोषण करनेवाले हैं ॥४०१-४०६॥ १ पंसी स० २ मिटावे करि आकार स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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