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________________ ५२ श्री कवि किशनसिंह विरचित नाराच छन्द-सुनो वि सन्त ब्रह्मचर्य पालवा थकी इसो, अतीव रूपवान थाय कामदेवको जिसो । मनोज्ञ योषिता लहाय पुत्र पौत्र सोभितो, अनेक भूषणादि द्रव्य औरकैं नहीं इतो ॥३२५॥ गहै सुदिक्षया लहै विज्ञानको प्रकासही, अनन्त सुक्ख बोध दर्शनादि वीर्य भासही । सुमोक्ष सिद्ध थाय काल बीतहै अपार सो, सुसिद्धि योषिता मुखावलोकनेन गार सो ॥३२६॥ दोहा- लंपट विषयी पुरुषके, निज पर ठीक न होइ । दुरगति दुखफल सो लहै, भ्रमिहै भवदधि सोइ॥३२७॥ अडिल्ल छन्द- है कुरूप दुर्गंध निंदि निरधन महा, वेद नपुंसक दुर्भग व्याधि कुष्ठहि गहा । अंग विकल अति होय ग्रथिल जिमि भासही, परतिय संग विपाक लही है इम सही ॥३२८॥ दोहा- व्रत परवनिता त्यजनको, कथन कह्यो सुखकार । अरु लंपट विषयी तणो, भाष्यो सहु निरधार ॥३२९॥ सील थकी सुर नर विमल, सुख लहि सिवपुर जांहि । दुरगति दुख भवभ्रमणकौं, विषयी लंपट पांहि ॥३३०॥ हे सत्पुरुषों ! सुनो, ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करनेसे मनुष्य कामदेवके समान अत्यन्त रूपवान होता है, सुन्दर स्त्रियोंको प्राप्त होता है, पुत्र पौत्र आदिसे सुशोभित रहता है, अन्य मनुष्योंको दुर्लभ आभूषणादि संपत्तिको प्राप्त होता है, पश्चात् दीक्षा लेकर विज्ञान अर्थात् केवलज्ञानको प्राप्तकर अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन तथा अनन्त वीर्यसे सुशोभित होता है, तदनन्तर मोक्ष प्राप्तकर सिद्धालयमें मुक्तिकान्ताका मुखावलोकन करता हुआ अनन्त काल व्यतीत करता है ॥३२५-३२६।। इसके विपरीत विषयलंपटी मनुष्यको स्वपरका कुछ विवेक नहीं होता। वह दुर्गतियोंमें दुःखरूपी फल भोगकर संसारसागरमें भ्रमण करता है ॥३२७॥ कोई मनुष्य कुरूप, दुर्गन्धयुक्त, निन्दनीय, निर्धन, नपुंसक, भाग्यहीन, कुष्ठ आदि रोगोंसे पीडित, विकलांग और गांठदार शरीरसे युक्त होते हैं सो उनकी यह दशा परस्त्रीसंगसे उपार्जित पापकर्मके उदयसे हुई है ऐसा जानना चाहिये ॥३२८॥ कवि कहते हैं कि हमने परस्त्रीत्याग व्रतका सुखदायक कथन किया, साथ ही विषयलंपट मनुष्योंका भी वर्णन किया। सबका सार यह है कि शीलके प्रभावसे देव और मनुष्यगतिके सुख प्राप्तकर यह जीव मोक्षको प्राप्त होता है और विषयलंपट मनुष्य दुर्गतिके दुःख भोगता हुआ भवभ्रमणको प्राप्त होता है ॥३२९-३३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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