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क्रियाकोष
ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचार
छन्द चाल परकी जो करै सगाई, बतलावे जोग मिलाई । अरु ब्याह उपाय बतावै, निज व्रतको दोष लगावै ॥३३१॥ विभचारिण जै है नारी, परिगृहीत नाम उचारी । जिनको वेश्यादिक कहिये, तिनि संगम नहीं गहिये ॥३३२॥ हास्यादि कुतूहल कीजै, सीलै तब मलिन करीजै । अपरिगृहीत सुनि नाम, पति परणी है जे वाम ॥३३३॥ तसु महा कुसीला जाणी, जसु संगति करै जु प्राणी । हास्यादिक वचन सुभाखे, सो सील मलिन अति राखे ॥३३४॥ जे लंपट विषयी क्रूर, ते पावै भव दुख पूर । अतीचार तीसरो एह, सुणिये अब चौथो जेह ॥३३५॥ क्रीडा अनंग विधि एह, हस्तसुं परसत तिय देह ।
विकलप मनमें ही आनै, परतक्ष ते सीलहि भानै ॥३३६॥ आगे ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचार कहते हैं :
जो अपनी संरक्षित संतानके सिवाय अन्य पुरुषोंकी संतानकी सगाई करावे अथवा उनका योग मिलावे अथवा उनके विवाहका उपाय बतलावे वह अपने व्रतको दोष लगाता है। यह अन्य विवाहकरण नामका अतिचार है ॥३३१॥ जो वेश्यादिक व्यभिचारिणी स्त्रियाँ हैं वे परिगृहीतेत्वरिका* हैं उनके साथ मेलजोल नहीं करना चाहिये और न ही हास्य तथा कुतूहलकी बात करना चाहिये। ऐसा करनेसे शीलव्रत मलिन होता है। यह परिगृहीतेत्वरिका गमन नामका अतिचार है। जिन स्त्रियोंको उनके पतिने परणा है-उनके साथ विवाह किया है वे अपरिगृहीत* कहलाती हैं। इन अपरिगृहीत स्त्रियोंमें भी कोई कोई महा कुशील-दुराचारिणी होती हैं। उन स्त्रियोंकी जो प्राणी संगति करते हैं तथा उनके साथ हास्यादिकके वचन कहते हैं वे अपने शीलको मलिन करते हैं। जो दुष्ट मनुष्य विषयलंपट होते हैं वे भवभवमें तीव्र दुःख प्राप्त करते हैं। यह अपरिगृहीतेत्वरिका गमन नामका तृतीय अतिचार है। अब चतुर्थ अतिचारका स्वरूप सुनिये ॥३३२-३३५।। हाथसे स्त्रीके शरीरका स्पर्श करना अनंगक्रीडा नामका अतिचार है। हाथसे स्त्रीके शरीरका स्पर्श करनेसे मनमें दुर्विकल्प हो जाते हैं और उनसे शीलव्रत भंग हो जाता है। यह चतुर्थ अतिचार ज्ञानीजनोंको कभी नहीं लगाना चाहिये। अब कामतीव्राभिनिवेश
१ विधि लावे स० २ तिनि संग गमन नहि लहिये स०
* यहाँ अपरिगृहीता और परिगृहीताकी परिभाषामें व्यत्यय जान पडता हैं। अन्यत्र वेश्या तथा कन्या आदिको अपरिगृहीता तथा अन्यकी विवाहिता स्त्रीको परिगृहीता कहा गया है।
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