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________________ श्री कवि किशनसिंह विरचित गीता छन्द जो सुद्ध समकित धार अतिही नरभव सुखकर को लहैं, संसारमें जे सार सारहि भोगि सो मुनिव्रत गहैं । सो मुक्ति वनिताके पयोधर हार सम जे रति करें, तहँ जनम मरण न लहैं कबही सुख अनंता अनुसरै ॥२५८॥ दोहा कुबुद्धि भवि संसारमें, भ्रमत चतुरगति थान । जिन आगम तत्वार्थको, विकल होय सरधान ॥२५९॥ अहिंसा अणुव्रत __ चौपाई त्रसकी घात कबहुं नहिं जाण, जो कदाचि छूटे निज प्राण । थावर दोष लगै तिह थकी, प्रथम अणुव्रत जिनवर बकी ॥२६०॥ थावर हिंसा इतनी ३तजै, त्रसके घात दोषको ४भजै । सो धरमी सो परम सुजान, जीवदया प्रतिपालक मान ॥२६॥ छन्द नाराच करोति जीवकी दया नरोत्तमो मही सही, सुवैर वर्ग वर्जितो निरामयो तनू लही; त्रिलोक हर्म्य मध्य रत्नदीप सो बखानिए, श्वरै विमोक्ष लक्षमी प्रसिद्ध सिद्ध जानिए ॥२६२॥ जो मनुष्य शुद्ध सम्यक्त्वको धारणकर नरभवको सुखकारी करते हैं तथा संसारके सारभूत भोगोंको भोगकर मुनिव्रत स्वीकृत करते हैं वे मुक्तिरमाके साथ क्रीड़ा करते हुए जन्ममरणसे रहित होकर अनन्त सुखका अनुभव करते हैं ॥२५८॥ जो जिनदेव, जिनागम और जिन प्रणीत तत्त्वार्थके श्रद्धानसे रहित हैं वे दुर्बुद्धि प्राणी चतुर्गतिरूप संसारमें भ्रमण करते रहते हैं ।।२५९।। अब अहिंसाणुव्रतके लक्षण कहते हैं जिसमें कदाचित् अपने प्राण भले ही छूट जावें परन्तु त्रस जीवोंका घात नहीं होता तथा स्थावर घातका दोष लगता है उसे जिनेन्द्र भगवानने प्रथम अहिंसाणुव्रत कहा है। जो निष्प्रयोजन स्थावर हिंसाका त्याग करते हैं तथा त्रसघातके दोषोंसे दूर भागते हैं वे धर्मात्मा हैं, परम विवेकी हैं और जीवदयाके पालन करनेवाले हैं ॥२६०-२६१॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि जो उत्तम पुरुष पृथिवी पर जीवदया करता है वह शत्रुओंके समूहसे रहित होता हुआ नीरोगी शरीरको प्राप्त होता है। तीनलोकरूपी भवनके बीच वह रत्नमय दीपकके समान कहा जाता है और अन्तमें १. शृंगारति करे स० २. उदधि घोर संसारमें न० स० ३. भजे स. ४. तजे स. ५. वरै सुमोक्ष लक्षमी प्रसिद्ध सिद्धि जानिए स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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