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________________ क्रियाकोष दोहा- खाद्य अखाद्य न भेद कछु, हिंसा करत न ढील । महा पापको मूल नर, ज्यों चँडाल अरु भील ॥२६३॥ अडिल्ल-जीव 'वद्ध कर पाप उपार्जित पाक तैं, घोर भवोदधि मांहि परै निज आपतै । नरक तणा दुख सबै बहुत विधितें सहैं, फिर फिर दुर्गतिमांहि सदा फिरते रहैं ॥२६४॥ दोहा- करुणा अरु हिंसा तणो, प्रगट कह्यो फल भेद । वह उपजावे सुख महा, अदयातें है खेद ॥२६५॥ ऐसे लख भविजन सदा, धरो दया चित राग । सुपनेहू अदया करत, भाव तजहु बडभाग ॥२६६॥ सवैया-पूरव ही मुनिराय दया पाली षटकाय, महासुखदाय शिवथानक लहायो हैं । प्रतिमा धरैयाके उपासकादि केते कहूं, करुणा सहाय जाय देवलोक पायो है । अजहूं जीवनिकी रक्षाके करैया भवि, सुर शिव लहैं जिनराज यों बतायो है । यातें हिंसा टार क्रिया पार चित्त धार जिन, आगम प्रमाण कृष्णसिंह ऐसे गायो है॥२६७॥ वह मोक्षरूपी प्रसिद्ध लक्ष्मीका वरण करता है ॥२६२॥ जिन मनुष्योंको भक्ष्य और अभक्ष्यका कुछ भी भेद नहीं हैं तथा हिंसा करनेमें जिन्हें देर नहीं लगती वे चाण्डाल और भीलके समान महापापके कारण हैं ॥२६३।। जो जीववध कर पापका उपार्जन करते हैं वे उसके फलस्वरूप अपने आप महाभयंकर संसाररूपी सागरमें पड़ते हैं। नरक गति संबंधी छेदन, भेदन, ताड़न आदि नाना प्रकारके दुःख सहन करते हैं और वहाँसे निकलकर बारबार खोटी गतियोंमें भ्रमण करते हैं ॥२६४॥ इस प्रकार हमने करुणा और हिंसाके फलका स्पष्ट अन्तर कहा है। करुणा महान सुख उपजाती है और अदया-हिंसासे बहुत खेद प्राप्त होता है ॥२६५॥ ऐसा जानकर हे भव्यजीवों ! मनमें सदा दया संबंधी प्रीतिको धारण करो और स्वप्नमें भी यदि अदयाका भाव आता हो तो उसका त्याग करो ॥२६६॥ __पहले भी मुनिराज षट्कायके जीवोंकी दयाका पालन कर महा सुखदायक मोक्षको प्राप्त हुए हैं। प्रतिमाओंको धारण करनेवाले कितने ही श्रावक करुणाभावकी सहायतासे स्वर्गलोकको प्राप्त हुए हैं और आज भी जीवोंकी रक्षा करनेवाले भव्यजीव स्वर्ग और मोक्षके सुख प्राप्त १ घात करि स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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