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________________ ३९ क्रियाकोष द्वादश व्रत कथन दोहा कियो मूलगुण आठको, वर्णन बुधि अनुसार । अब द्वादश व्रतको कथन, सुनहु भविक व्रतधार ॥२५२॥ बारा व्रतमांही प्रथम, पांच अणूव्रत सार । तीन गुणव्रत चार फुनि, शिक्षाव्रत सुखकार ॥२५३॥ छन्द चाल इह व्रत पालै फल ताको, भाषों प्रत्येक सुजाको । जे अव्रत दोष अपार, कहिहों तिनको निरधार ॥२५४॥ समकित जुत व्रत फलदाई, तिहकी उपमा न कराई । विनु दरशन जे व्रतधारी, तुष खण्डन सम फलकारी ॥२५५॥ __ अडिल्ल छन्द जो नर व्रतको धरैं सहित समकित सही, सुर नर और फणिंद्र संपदाको लही । केवल विभव प्रकाश समवसृत लही तदा, सिद्धिवधू कुचकुंभ पाय क्रीडित सदा ॥२५६॥ दोहा भाग्यहीन जस वित्त गुण, धनधान्यादिक नाहि । भीतमूर्ति नित ही दुखी, वरतरहित नर थांहि ॥२५७।। हमने अपनी बुद्धिके अनुसार आठ मूलगुणोंका वर्णन किया। अब बारह व्रतोंका कथन करते हैं सो हे व्रतके धारक भव्यजीवो ! सुनो ॥२५२॥ बारह व्रतोंमें प्रथम पाँच अणुव्रत, फिर तीन गुणव्रत, पश्चात् चार शिक्षाव्रतोंको जानो ॥२५३॥ इन बारह व्रतोंका पालन करनेसे जो फल प्राप्त होता है उसका प्रत्येकका वर्णन करेंगे। अव्रत अर्थात् व्रतका पालन नहीं करनेसे जो अपार दोष होता है उसका भी निर्धार करेंगे ॥२५४॥ सम्यग्दर्शन सहित व्रत फलदायक होते हैं। उनकी कोई उपमा नहीं है। सम्यग्दर्शनके बिना व्रतका धारण करना तुषखण्डनके समान है अर्थात् जिस प्रकार धानके छिलके कूटनेसे चावलोंकी प्राप्ति नहीं होती उसी प्रकार सम्यग्दर्शन रहित व्रत धारण करनेसे इष्ट फलकी प्राप्ति नहीं होती ॥२५५।। जो मनुष्य सम्यग्दर्शन सहित व्रतको धारण करते हैं वे देव, मनुष्य और धरणेन्द्रकी संपदाको प्राप्त होकर तथा केवलज्ञानके वैभवसे प्रकाशमान समवसरणको प्राप्त हो मुक्तिरमाके साथ क्रीड़ा करते हैं ॥२५६।। जो मनुष्य व्रतसे रहित हैं वे भाग्यहीन, कीर्तिहीन, गुणहीन तथा धान्यादिकसे रहित होते हैं। वे निरन्तर भयभीत और दुःखी रहते हैं ॥२५७।। १. सुर नर फनि चक्री सुसंपदाको लही स० २. वर नार स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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