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श्री कवि किशनसिंह विरचित
निपजावै उत्तम बालक, बडभाग जगह प्रतिपालक । तातै यह निहचै जानी, चौथे दिन स्नान जु ठानी ॥२४६॥ पतिवरत त्रिया जो धारे, निज पतिको नयन निहारे । नर अवर नजर जो आवे, तस सूरत सम सुत थावे ॥२४७॥ शीलहि कलंकको लावे, अपजस जग पडह बजावै । यातें शुभ वनिता जे हैं, किरियाजुत चाले ते हैं ॥२४८॥ निज पति बिन अवर न देखे, 'सासू ननदी मुख पेखे । ताके घरमांहीं जाणो, लछमीको वास वखाणो ॥२४९॥ अति सुजस होय जगमांही, ता सम वनिता कहुं नाही ।। इह कथन लखो बुध ठीका, भाषों नहि कछू अलीका ॥२५०॥
दोहा क्षत्री ब्राह्मण वैश्यकी, क्रिया विशेष वखान । ग्रंथ त्रिवर्णाचारमें, देख लेहु मतिमान ॥२५॥*
__ इति रजस्वला स्त्री क्रिया वर्णनम् वह बालक बड़ा भाग्यशाली और जगतकी रक्षा करनेवाला होता है। ऐसा जानकर चतुर्थ स्नान करनेवाली पतिव्रता स्त्री अपने पतिका दर्शन करे। यदि अन्य पुरुषकी ओर देखती है तो उसी आकृतिवाले पुत्रको उत्पन्न करती है। ऐसी स्त्री शीलमें कलंक लगाती है और अपकीर्तिका ढोल बजाती है अर्थात् संसारमें उसका अपयश फैलता है। इसलिये जो उत्तम स्त्रियाँ हैं वे उपर्युक्त क्रियासे चलती हैं; अपने पतिके बिना अन्य पुरुषको नहीं देखती हैं; स्त्रियों में सासु और ननदका मुख देखती हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि जिस घरमें ऐसी स्त्री होती है उस घरमें लक्ष्मीका निवास होता है। उस स्त्रीका सुयश संसारमें फैलता है और उस स्त्रीके समान दूसरी स्त्री नहीं होती। हे विद्वज्जनों ! इस कथनको तुम यथार्थ जानो, मैं कुछ मिथ्या नहीं कह रहा हूँ ॥२४६२५०॥ त्रिवर्णाचार ग्रंथमें क्षत्रिय, ब्राह्मण और वैश्योंकी क्रियाओंका विशेष वर्णन है उसे ज्ञानवान मनुष्य वहाँसे देख लें ॥२५१॥
इस प्रकार रजस्वला स्त्रीकी क्रियाका वर्णन हुआ। आगे बारह व्रतोंका व्याख्यान करते हैं१. सासू नैनाहि मुख देखे क० ग० * छन्द २५१ के आगे स० प्रतिमें निम्नलिखित अडिल्ल छन्द अधिक है
रितुवंती तिय प्रथम दिवस चंडारणी, ब्रह्मघातिका दिवस दूसरेमें घणी। ततिय दिवसके मांहि निंद्य इम रजनकी, वासर चौथे अस्नान किये सी सधि-मनी ।।
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