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क्रियाकोष
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छन्द चाल दिनमें नहि सयन कराही, हासी न कौतूहल थाहीं । तनि तेल फुलेल न लावे, काजल 'नयना न अंजावे ॥२३९॥ नखको नहि दूर करावे, गीतादिक कबहुं न गावे । तिलक न दे रोली केशर, कर पग नख दे न महावर ॥२४०॥ इक दिवस तीन लों भोग, रितुवंती न करीवो जोग । पुरुषनको नजर न धारे, निज पतिहूंको न निहारे ॥२४॥ वनिता वै धरम जु निसिकों, दिन गिण लीजे नहि तिसको । सूरज नजरों जो आवे, वह दिन गिणतीमें लावे ॥२४२॥ दजै दिन स्नान कराही, धोबी कपडा ले जाही । संकोच थकीन जराई, औरनकी नजर न आई ॥२४३॥ तीजे दिन जलतें न्हावें, ३तनु वसन ऊजले लावे । चौथे दिन स्नान करती, मनमें आनंद धरती ॥२४४॥ तन वसन ऊजले धारे, प्रथमहि पति नयन निहारे । निसि धरे गरभ जो वाम, पति सूरतको अभिराम ॥२४५॥
ऋतुमती स्त्री दिनमें नहीं सोवे, हास्य तथा कौतुहल न करे, शरीर पर तेल, फुलेल न लगावे, आंखोंमें काजल नहीं लगावे, नाखून नहीं काटे, गीतादिक नहीं सुने, रोली तथा केशर आदिका तिलक नहीं लगावे, हाथ, पैर तथा नाखूनों पर महावर न लगावे ॥२३९-२४०॥
पहले दिनसे लेकर तीसरे दिन तक ऋतुमती स्त्रीका भोग करना योग्य नहीं है। ऋतुमती स्त्री पुरुषकी ओर दृष्टि न डाले, यहाँ तक कि अपने पतिकी ओर भी नहीं देखे ॥२४१॥ यदि ऋतुधर्म रातको शुरू होता है तो उस दिनको गिनतीमें नहीं लेना चाहिये। सूर्योदयसे दिनकी गिनती शुरू करना चाहिये ॥२४२।।
दूसरे दिन स्नान करा कर धोबी कपड़े ले जावे । संकोचके कारण स्त्री दूसरोंकी दृष्टिसे ओझल-अन्तर्हित रहती है। तीसरे दिन जलसे स्नान करे और शरीर पर उज्ज्वल वस्त्र धारण करे। चौथे दिन स्नान करती हुई मनमें हर्षित होकर शरीर पर उज्ज्वल वस्त्र धारण करे । शुद्धि होने पर सर्वप्रथम पतिको देखना चाहिये। जो स्त्री चतुर्थ स्नानके बाद रात्रिमें गर्भ धारण करती है वह पतिके समान आकृतिवाले सुन्दर पुत्रको जन्म देती है ॥२४३-२४५।।
१. नहि नैन अंजावे स० २. दरपण देखे न महावर स० ३. तब स०
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