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श्री कवि किशनसिंह विरचित कोऊ विकल महा कुमतिया, दुय तीजे दिन सेवै तिया । महा पाप उपजावे जोर, 'या सम अवर न क्रिया अघोर ॥२३२॥ महा ग्लानि उपजै तिहि वार, २चमारणिहं तें अधिकार । जाको फल वे तुरत लहाय, जो कहुं उस दिन गरभ रहाय ॥२३३॥ भाग्यहीण सुत बेटी होय, पर तिय नर सेवै बुधि खोय । क्रोधी होय अर वचन न ठीक, जदवा तदवा कहै अलीक ॥२३४॥ रितुवंती तिय किरिया जिसी, भाषों भवि सुणि करिये तिसी । वनिता धर्म होत जब बाल, सकल काम तजि तत्काल ॥२३५॥ ठाम एकांत बैठि है जाय, भूमि तृणा संथारि कराय । निसि दिन तिह पर थिरता धरै, निद्रा आये सयन जु करै ॥२३६॥ इह विधि निवसै वासर तीन, तबलों एती क्रिया प्रवीन । प्रथमहि असन गरिष्ठ न करे, पातल अथवा करमें धरे ॥२३७॥ माटी वासण जलका साज, फिरिवे हैं आवें नहि काज ।
इह भोजन जल पीवन रीति, अवर क्रिया सुनिये धर प्रीति ॥२३८॥ दुर्बुद्धि मनुष्य विकल (बेचैन) हो दूसरे तीसरे दिन स्त्रीका सेवन करने लगता है इसमें महान पाप उत्पन्न होता है । इसके समान दूसरी कोई नीच क्रिया नहीं है । ऋतुमती स्त्रीके साथ भोग करनेमें चंडालिनके भोगसे भी अधिक महान ग्लानि उत्पन्न होती है। उसका फल भी ऐसे लोगोंको शीघ्र ही मिलता है। यदि उस दिन गर्भ रह जाता है तो भाग्यहीन पुत्र-पुत्री जन्म लेते हैं। पुत्र परस्त्री-सेवी होता है और पुत्री परपुरुषका सेवन करनेवाली होती है। वे क्रोधी प्रकृतिके होते हैं और जैसा तैसा मिथ्या भाषण करते हैं ॥२३१-२३४॥
ऋतुमती स्त्रीकी जैसी क्रिया होती है वैसी मैं कहता हूँ। हे भव्यजीवों ! उसे सुनो। जब स्त्री-धर्म शुरू होता है अर्थात् रजोधर्म प्रारंभ होता है उसी समय सब काम छोड़ देना चाहिये, एकान्त स्थानमें बैठना चाहिये और भूमि पर घास पयाल आदिका आसन बना कर उसी पर रात-दिन स्थिर रहना चाहिये। नींद आवे तो उसी आसन पर शयन करना चाहिये। इस विधिसे तीन दिन रहना चाहिये। इन दिनोंमें इतनी क्रियाएँ करना चाहिये । प्रथम तो गरिष्ठ भोजन न करें, द्वितीय पातल अथवा हाथमें भोजन करें, पानीका बर्तन मिट्टीका रक्खें, पश्चात् उसे काममें नहीं लाना चाहिये। यह भोजन और पानी पीनेकी क्रिया कही। अब प्रीति धारण कर अन्य क्रियाएँ सुनो ॥२३५-२३८।।
१. या सम क्रिया न और अघोर स० २. चंडालिनिहूं न० स०
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