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श्री कवि किशनसिंह विरचित
छन्द चाल जे आठ मूल गुण पालैं, 'इतने दोषनको टालें । दीजे जिम मंदिर नींव, गहिरी चौडी अति सींव ॥२१८॥ ता पर जो काम चढावै, बहु दिन लों डिगण न पावै । तिम श्रावकव्रत गृह केरी, इनि विनिही नींव अनेरी ॥२१९॥ दरशन जुत ए पलि आवै, व्रत मंदिर अडिग रहावै । यातें जे भविजन प्राणी, निहचै एह मनमें आणी ॥२२०॥ दृग् गुण विनु सब व्रतधारी, प्रतिमा नहि कारिजकारी । प्रतिमा ग्यारा जो भेद, आगे कहिहों तजि खेद ॥२२१॥
अडिल्ल किसनसिंह यह अरज करे भविजन! २सुनो । पालो वसु गुण मूल निजातम ही गुनो ॥ दरशनजुत व्रत त्रिविध शुद्ध मन लाइ हो । सुरग संपदा भुंजि मोक्षसुख पाय हो ॥२२२॥ रजस्वला स्त्रीकी क्रियाका वर्णन
चौपाई अवर कथन इक कहनो जोग, सो सुन लीज्यौ जे भवि लोग ।
अबै क्रिया प्रगटी बहु हीण, यातें भाषू लखहु प्रवीण ॥२२३॥ चाहिये। जिस प्रकार मंदिर बनवाते समय लम्बी चौड़ी नींव भर कर उसके ऊपर काम चढ़ाया जाता है तो वह बहुत दिन तक डगमग नहीं होता। उसी प्रकार श्रावकके व्रतरूपी घरकी ये मूल गुण ही नींव है ॥२१८-२१९॥ यदि ये मूल गुण सम्यग्दर्शनके साथ पाले जावें तो व्रतरूपी मंदिर अडिग रहेगा। इसलिये जो भव्य प्राणी हैं वे यही बात मनमें रखते हैं। सम्यग्दर्शन गुणके बिना जो व्रत धारण करते हैं उनकी प्रतिमाएँ कार्यकारी नहीं है। प्रतिमाओंके जो ग्यारह भेद हैं उन्हें खेद तज कर आगे कहूँगा ॥२२०-२२१॥ ग्रन्थकार किशनसिंह कहते हैं कि हे भव्यजनों! सुनो, इन आठ मूल गुणोंका पालन करो तथा निजात्माका मनन करो । जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे युक्त हो मन वचन काय संबंधी शुद्धताको मनमें धारण करते हैं वे स्वर्गकी संपदा भोगकर मोक्षसुखको प्राप्त करते हैं ॥२२२॥
इस प्रकार रसोई घरका वर्णनकर अब रजस्वला स्त्रीकी क्रियाका वर्णन करते हैं
अब यहाँ एक अन्य क्रिया कहनेके योग्य है सो हे भव्यजनों! उसे सुनो। इस समय रजस्वला स्त्रीकी बहुत ही हीन क्रियाएँ प्रकट हुई हैं इसलिये हे चतुर पुरुषों ! मैं उन्हें कहता हूँ।
१. ईनके स० न० २. सुणो ग० ३. निजातमको मुणो ग०
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