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क्रियाकोष
मांगे वासन खावे वाहि, जो सीधो घरहूं को आहि । खाये दोष लगै अधिकार, मांस बराबर फेर न सार ॥२१०॥
गूजर मीणा जाट अहीर, भील चमार तुरक बहु कीर । इत्यादिक जे हीण कहात, तिन वासनमें भोजन खात ॥२११॥ " ताके घरको वासण होई, तातें तजौ विवेकी लोय । श्रावक कुल अति लह्यो गरिष्ट, किरिया बिन सो जानहु भिष्ट ॥२१२॥
जे बुध क्रिया विषं परवीन, अन्य तणो वासन न गहीन । तामें भोजन कबहु न करै, अधिको कष्ट आयजो परै ॥२१३॥
जैन धरम जाके नहि होय, अन्यमती कहिये नर सोय । निपज्यो असन तास घरमांहि, जीमण योग वखाणो नांहि ॥ २१४॥ अरु तिनके घरहु को कियो, खानो जिनमतमें वरजियो । पाणी छाणि न जाणै सोय, सोधण नाज विवेक न होय ॥२१५॥
ईंधन देख न बालो जिके, दया रहित नर जाणो तिके । जीवदया षट मतमें सार, दया विना करणी सब छार ॥ २१६ ॥ यातें जे करुणा प्रतिपाल, असन आन घरि कर तजि चाल । निज व्रत रक्षक है नर "जेह, 'यों जिनवर भाष्यो न संदेह ॥२१७॥
नीच कहलाते हैं वे भी उन सरायके बर्तनोंमें भोजन करते हैं, अथवा वे बर्तन उन नीच लोगोंके घरके हैं; अतः विवेकी जनोंको उनका त्याग करना चाहिये । हे भव्यजनों! तुम्हें श्रावकका अतिशय श्रेष्ठ कुल मिला है परन्तु क्रियाके बिना वह भ्रष्ट हो जावेगा । इसलिये जो ज्ञानी जन क्रियामें चतुर हैं वे दूसरी जातिके हीन बर्तनोंको लेकर उनमें कभी भोजन नहीं करे, भले ही अधिक कष्ट क्यों न आ पड़े ? ।।२११-२१३॥
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जिसके जैन धर्म न हो उसे अन्यमती कहते हैं । उसके घरमें भोजन करना योग्य नहीं है । इसके सिवाय उसके घर बना हुआ भोजन भी जिनमतमें वर्जनीय कहा गया है । जो पानी छानना नहीं जानते, जिन्हें अनाज शोधनेका विवेक नहीं है और जो ईंधन देख कर नहीं जलाते वे निर्दय कहलाते हैं । षड् दर्शनोंमें जीवदयाको श्रेष्ठ कहा गया है तथा दयाके बिना सभी कार्य सारहीन कहे गये हैं इसलिये जो दयाके प्रतिपालक हैं उन्हें पर घरके भोजनकी चालको छोड़ देना चाहिये । ऐसे ही जीव अपने व्रतकी रक्षा कर सकते हैं ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है इसमें संदेह नहीं है ।।२१४-२१७॥ जो आठ मूलगुणोंका पालन करते हैं उन्हें इतने दोषोंको दूर करना
१. कहंत स० २. भाजन स० ३. करंत स० ४. ताके घरसम वास न कोय स० न० ५. जेहि स० ६. क्रिया शुद्ध चालत है तेहिं स
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