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________________ एवं 'स' का भरपूर सहयोग मिला है क्योंकि मुद्रित प्रतियोंमें बहुत छन्द छूट गये हैं तथा कुछ अपूर्ण हैं। आवश्यक पाठ भेद उस-उस छन्दके नीचे टिप्पणमें दिये हैं। - इस ग्रन्थ के सम्पादनमें निम्न प्रतियोंका आधार लिया गया है (१) 'न' प्रति नरयावलीके श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिरकी है जो श्री स्याद्वाद शिक्षण परिषद, सागरके माध्यमसे प्राप्त हुई। यह हस्तलिखित प्रति है। इसमें कुल पृष्ठ संख्या १०६ है। पृष्ठकी लम्बाई ३२ से.मी. और चौड़ाई १४ से.मी. है। प्रत्येक पंक्तिमें लगभग ३५ अक्षर तक लिखे गये हैं तथा एक-एक पृष्ठ में ११ पंक्तियाँ ही लिखी गई है। इसकी प्रशस्तिमें अन्तमें लिखा है कि यह वैशाख कृष्ण षष्ठी संवत् १८७० को लिखी गई। अक्षर सुवाच्य तथा पृष्ठ जीर्णताके निकट है। (२) दूसरी हस्तलिखित प्रति 'स' है जो कि सागरके 'दिगंबर जैन मंदिर ढाकनलालजी सिंघई' से मिली। इसमें पृष्ठ संख्या १५७ है। पृष्ठकी लम्बाई २१ से.मी., चौड़ाई १६ से.मी. पंक्तिप्रमाण १० एवं प्रत्येक पंक्तिमें २६-३० अक्षर तक लिखे गये हैं। प्रति ग्रंथको अपूर्ण ही छोड़ देती है अतः इसके लेखनकालकी जानकारी अनुपलब्ध ही रह गई है। पत्र जीर्णताको प्राप्त है एवं अक्षर 'न' प्रतिकी अपेक्षा कुछ दुर्गम है। (३) 'क' प्रति मुद्रित प्रति है जो कि हमें अहमदाबादसे ईडरके ग्रन्थ भण्डारकी प्राप्त हुई थी। डिमाई साईज। वीर निर्वाण सं० २४७४ (वि० सं० २००४) में प्रकाशित । (४) दूसरी मुद्रित प्रति 'ख' है जो हमें ब्र० जिनेशजीने उपलब्ध कराई। डिमाई साईजमें हीराचंद नेमचंद शोलापुर वालोंने निर्णयसागर प्रेस द्वारा वि० संवत् १९४८ ईस्वी सन् १८९२ में प्रकाशित की थी। पेज रुग्ण हैं। ग्रंथकर्ताका परिचय कविवर किशनसिंहके द्वारा रचित यह क्रियाकोष, श्रावकाचारका अद्वितीय ग्रन्थ है। इन्होंने अपना परिचय प्रशस्तिमें निम्नानुसार दिया है “नागरवाल देशके उस रामापुर नगरमें, जो देवनिवासके समान था तथा जहाँ धर्मका प्रकाश प्रगट था, खण्डेलवाल, विशाल परिवारसे युक्त 'सिंघही कल्याण' रहते थे, जो सब गुणोंके जानकार, पाटनी गोत्री तथा सुयशसे सहित थे।.....उनके दो पुत्र थे-बड़ेका नाम सुखदेव और छोटेका नाम आनन्दसिंह था। सुखदेवके दो पुत्र थे-ज्ञानभान और किशनेश । ....उनमेंसे किशनेश (किशनसिंह) ने इस नवीन कथाकी रचना की है।...माथुर वसन्तरायको समस्त संसार जानता था। उनके बड़े पुत्रका नाम सिंघही कल्याणदास था। किशनसिंह इन्हींके पौत्र थे। परिस्थिति-वशात् अपना नगर छोड़कर वे सांगानेरमें रहने लगे। यहाँ जिनधर्मके प्रसाद से दिन सुखसे व्यतीत होने लगे।"१ ___ उपर्युक्त संदर्भसे कविके जीवन संबंधी सभी तथ्य प्रकाशित हो जाते हैं। इस पर अधिक लिखना अनावश्यक होगा। १. देखिये प्रस्तुत ग्रंथके पृष्ठ ३१०-३११ तथा तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा भाग ४ पृष्ठ २८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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