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आद्य वक्तव्य (प्रथमावृत्ति)
आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामीने हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापोंसे निवृत्त होनेको चारित्र कहा है । यह चारित्र एकदेश और सर्वदेशके भेदसे दो प्रकारका होता है । जिसमें उपर्युक्त पाँचों पापोंका पूर्णरूपसे त्याग होता है वह सर्वदेश चारित्र कहलाता है । इसके धारक यथाजात निर्ग्रथ (नग्न दिगंबर) मुद्राके धारी मुनिराज ही होते हैं । और जिसमें उपर्युक्त पाँच पापोंका एकदेश त्याग होता है वह देशचारित्र कहलाता है । इसे धारण करनेवाला श्रावक या उपासक कहलाता है । 'शृणोति इति श्रावकः' जो गुरुजनोंके द्वारा उपदिष्ट धर्मोपदेशको श्रद्धाके साथ सुनकर उसका पालन करता है उसे श्रावक कहते हैं । 'उपास्ते इति उपासक:' इस व्युत्पत्तिके अनुसार जो गुरुजनोंके समीप बैठकर उनकी सेवा करता है वह उपासक कहलाता है । शब्दभेद होनेपर भी श्रावक और उपासक दोनों शब्द पर्यायवाची हैं ।
सर्वदेश चारित्र अर्थात् मुनिधर्मका वर्णन करनेवाले मूलाचार, भगवती - आराधना, अनगार धर्मामृत तथा आचारसार आदि अनेक ग्रन्थ हैं। इसी प्रकार एकदेशचारित्रका वर्णन करनेवाले रत्नकरण्डक श्रावकाचार, अमितगति श्रावकाचार, वसुनन्दी श्रावकाचार तथा सागार धर्मामृत आदि अनेक ग्रंथ हैं । प्रसन्नताकी बात है कि अभी हाल जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुरने पं० हीरालालजी शास्त्रीके सम्पादकत्वमें ३४ श्रावकाचारोंका प्रकाशन किया है । जिन श्रावकाचारोंका जन साधारण नाम भी नहीं जानते थे, उन श्रावकाचारोंका प्राचीन शास्त्र भण्डारोंसे निकालकर संकलन किया गया है ।
'आचारः प्रथमो धर्मः' आचार ही प्रथम धर्म है। जिस प्रकार मानव शरीरके अंतर्गत रहनेवाला अस्थिपुंज उसे स्थिर रखता है और उस अस्थिपुंजमें जरा-सा फ्रेक्चर ( स्खलन ) होने पर शरीर पङ्गु हो जाता है; उसी प्रकार आचार ही धर्मको स्थायित्व देता है । आचारमें खराबी होनेसे धर्म नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है । यही कारण है कि जैनागममें द्वादशाङ्गके अन्तर्गत आचाराङ्गको पहला स्थान मिला है । इस अङ्गमें मुनियोंके आचारका विस्तारसे वर्णन किया गया है। श्रावक संबंधी आचारका वर्णन करनेवाला सातवाँ उपासकाध्ययनाङ्ग है ।
सम्यग्दर्शन धर्मरूपी वृक्षका मूल है, सम्यग्ज्ञान उसका स्कन्ध है और सम्यक्चारित्र उसकी शाखा प्रशाखायें है । कर्मसमूहका नाशकर मोक्षरूप फलकी प्राप्ति सम्यक्चारित्रसे ही होती है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके साथ जो चारित्र होता है उसे सम्यक्चारित्र कहते है । क्रियाकोषका सम्पादन
क्रियाकोषका संपादन करनेमें कुछ कठिनाइयाँ थीं, उनमें मुख्य और सर्वप्रथम कठिनाई शुद्धपाठ एवं पूर्ण पाठका निर्णय करनेकी थी । जैसे-तैसे दो-तीन मुद्रित प्रतियोंमेंसे मूलपाठको समीचीन रूप दिया गया है । इसमें सर्वाधिक आदर्श प्रतिके रूपमें श्रावकाचार संग्रहमें प्रकाशित पाठको ही स्वीकृत किया गया है । किन्तु कहीं कहीं अस्पष्टता नजर आने पर हमें कई अन्य प्रतियोंका भी अवलंबन लेना पड़ा है । इस ग्रन्थको शुद्धतम बनानेमें दो हस्तलिखित प्रतियाँ 'न'
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