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________________ २० श्री कवि किशनसिंह विरचित बीते जब ही दुय जामा, तब होवै तेइन्दी धामा । दु अर्ध पहर गति जानी, उपजै चउ इन्द्री प्रानी ॥ १२६॥ गमिया दश दोय मुहूरत, पंचेन्द्री जिय करि पूरत । ह्वै है नहि संसै आणी, यों भाषै जिनवर वाणी ॥ १२७॥ बुधजन ऐसो लखि दोषा, जिय तत्क्षण अघको कोषा । कोई ऐसे कहिबे चाही, खाये बिन जन्म गंवाही ॥ १२८॥ मर्याद न सधिहैं मूला, तजिये है व्रत अनुकूला । खायेको पाप अपारा, छोडै शुभ गति है सारा ॥ १२९॥ सवैया मूढ सुनै इह कांजिय भेद, गहै मनि खेद धरो विकलाई । खात सवाद लहै आल्हाद, महा उनमाद रु लंपटताई । पातक जोर महा दुःख घोर, सहै लखि ऐसिय भव्य तजाई | जे मतिवंत विवेकिय संत, महा गुणवंत जिनंद दुहाई ॥ १३० ॥ इति कांजीनिषेध वर्णनम् चार मुहूर्त अर्थात् आठ घड़ीके बीतने पर एकेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं, छह मुहूर्त अर्थात् बारह घड़ी बीतने पर दो इन्द्रिय जीव उसमें आ जाते हैं, दो प्रहर अर्थात् सोलह घड़ी बीतने पर वह कांजी तीन इन्द्रिय जीवोंका स्थान बन जाती है, अढ़ाई प्रहर अर्थात् बीस घड़ी बीतने पर चौइन्द्रिय जीव उत्पन्न हो जाते हैं और बारह मुहूर्त अर्थात् चौबीस घड़ी बीत जाने पर पंचेन्द्रिय जीवोंसे परिपूर्ण हो जाती है, इसमें संशय नहीं है । जिनेन्द्र देवने अपनी दिव्यध्वनिमें ऐसा कहा है ।। १२५-१२७॥ हे ज्ञानी जनों ! ऐसा जान कर इसे तत्काल छोड़ो, यह पापका भण्डार है । मर्यादाकी कमीके कारण कोई मानव ऐसा भी कहते हैं कि हम इसे खाये बिना ही जन्म व्यतीत कर लेंगे क्योंकि व्रतके अनुकूल मर्यादा पल नहीं सकेगी । मर्यादा भंगकर खानेका अपार पाप लगेगा, इसलिये बिलकुल ही छोड़ देना ठीक है । ऐसा करनेसे श्रेष्ठ शुभगतिकी प्राप्ति होगी ।। १२८-१२९॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि हे मूर्ख प्राणी ! तू कांजीके इस भेदको सुन कर मनमें खेद तथा विकलता धारण कर। इसे खाते समय स्वादजनित आह्लाद उत्पन्न होता है परंतु उससे उन्मादविषयोंकी उत्तेजना और लंपटता बढ़ती है । पापकी प्रबलतासे भयंकर दुःख उठाना पड़ता है, ऐसा जान कर हे भव्यजीवों ! इसका त्याग करो । जो मतिमान, विवेकवान और महा गुणवान संत पुरुष हैं वे जिनेन्द्र भगवानको प्रमाणभूत मानते हैं - उनकी दुहाई स्वीकृत करते हैं ॥१३०॥ इस प्रकार कांजी-चाटके निषेधका वर्णन हुआ । १ तजिहैं ले व्रत अनुकूला स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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