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क्रियाकोष
गोरस मर्यादा कथन
छन्द चाल अब गोरस विधि सुन एवा, भाषो श्री जिनवर देवा । दोहत महिषी जब गायें, तब ही मर्याद गहायें ॥१३१॥ इक अन्तमुहूरत ताई, जीव न तामें उपजाई । राखे ताको जो सीरा, वैसे ही जीव गहीरा ॥१३२॥ उपजै सन्मूर्च्छन जासे, कर जतन दयाधर तासे । दोहैं पीछे सुन वाला, धर अगनि उपरि तत्काला ॥१३३॥ फिर तामें जांवण दीजै, तबतें वसु पहर गणीजे । तबलो दधि खायो सारा, पीछे तजिये निरधारा ॥१३४॥ दधिको धरिके जु मथाणी, मथिहै जो वनिता स्यानी । मथितें ही जल जामांही, डारे फिरि ताहि मथाही ॥१३५॥ वह तक्र पहर चहुं ताई, रेखानेको जोग कहाई । मथिये पीछे जल नाखै, बहु वार लगे तिहि राखै ॥१३६॥ बिन छाणों जल जिम जाणों, तैसो ही ताहि बखाणों ।
तातें जे करुणा धारी, रेखावें दधि तक्र विचारी ॥१३७॥ अब आगे गोरसकी मर्यादाका कथन करते हैं
जिनेन्द्र देवने गोरसकी जो विधि कही है उसे अब सुनो। गाय और भैंसको जब दुहते हैं तबसे गोरसकी मर्यादा लेना चाहिये ॥१३१॥ दुहनेके एक अन्तर्मुहूर्त तक उसमें जीव उत्पन्न नहीं होते । अन्तर्मुहूर्तके बाद यदि दूधको ठण्डा रखा जाता है तो उसमें उसी जातिके बहुत संमूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिये दया धारण कर जीव उत्पन्न न हों इसका यत्न करना चाहिये । यत्न यही है कि दूधको दुहनेके तत्काल बाद अग्निके ऊपर रख देना चाहिये। खूब गर्म होनेके बाद उसमें जामन देना चाहिये । जामन देनेके समयसे आठ प्रहर गिन लीजिये। आठ प्रहर तक वह दही खाना चाहिये, पश्चात् उसका त्याग कर देना चाहिये । ॥१३२-१३४॥ उस मर्यादित दहीमें मथानी डालकर जो स्त्री उसे मथती है उसे मथनेके समय ही पानी डालकर मथना चाहिये। इस विधिसे मथ कर जो तक्र (छांछ) बनाया जाता है वह चार प्रहर तक खानेके योग्य रहता है। मथनेके बाद तक्रमें जल डाल कर यदि बहुत समय तक रखा जाता है तो वह अनछाने जलके समान हो जाता है। इसलिये जो करुणाके धारी भव्य जीव हैं वे दही और तक्रको विचारपूर्वक ही खावें। जो मर्यादाका उल्लंघन कर खाते हैं उन्हें मदिराका दोष
१ पीछे न० स० २ खैवेको न० स० ३ खै है न० स०
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