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क्रियाकोष
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चौपाई तल्यो तेल घृतमें पकवान, मीठे मिलियो है जो धांन । अथवा अन्न तणो ही होय, जलसरदी तामें कछु जोय ॥७७।। आठ पहर मरज्याद बखान, पाछे संधाना सम जान । भुजिया बडा कचौरी पुवा, मालपुवा घृत तेल जु हुवा ॥७८॥ जुमक बडी लूचई जान, सीरो लपसी पुरी बखान । कीए पीछे सांजलो खाहिं, रात वसै तिन राखै नाहिं ॥७९॥ इनमें उपजें जीव अनेक, तिन ही तजो सु धार विवेक । तरकारी अरु कढी खीचडी, इन मरजाद सु सोला घडी ।।८०॥ रोटी प्रात थकी लों सांज, खइये भवि मरजादा मांज । पीछे वासी कैसे दोष, तजो भव्य जे शुभ वृष पोष ॥८१॥
छन्द चाल केते नर ऐसे भा, हम नहीं अथानो चापैं। कैरी नींबूके मांहीं, नानाविध वस्तु मिलाहीं ॥८२॥ सरसोंको तेल मंगावै, सब ग्लेकर अगनि चढावें ।
ल्योंजी तस नाम कहाई, जीभ्या लंपट ४अधिकाई॥८३॥ जो पक्वान्न तेल अथवा घीमें तला गया है अथवा जिस अन्नमें मीठा मिलाया गया है अथवा जो अन्नरूप ही है-जिसमें मीठा नहीं मिलाया गया है परन्तु पानीकी कुछ सरदी जिसमें रहती है जैसे खाजा आदि । इनकी मर्यादा आठ प्रहरकी कही गई हैं। आठ प्रहरके पीछे उसे संधानअथानाके समान जानना चाहिये । भुजिया, बड़ा, कचौड़ी, पुवा, मालपुवा, जुमक, बड़ी आदि घी या तेलमें तली जाती हैं वे, तथा हलुवा, लापसी तथा परांयठा आदि बनानेके बाद शाम तक खाना चाहिये। रातमें उनको नहीं रखना चाहिये। क्योंकि इनमें अनेक जीव उत्पन्न होते हैं इसलिये सम्यक् प्रकारसे विवेक धारण कर इनका परित्याग करना चाहिये । तरकारी, कढ़ी और खिचड़ी आदिकी मर्यादा सोलह घड़ीकी है। प्रातःकालकी बनी रोटी सायंकाल तक खाना चाहिये । हे भव्यजीवों! इनकी यही मर्यादा जाननी चाहिये। मर्यादाके बाद इनमें वासीका दोष लगता है इसलिये हे धर्मके पोषक भव्यजीवों ! इनका त्याग करो ॥७७-८१॥
कितने ही मनुष्य ऐसा कहते हैं कि हम अथाना तो नहीं खाते हैं परन्तु वे कच्चा आम और नींबूमें नाना प्रकारकी वस्तुएँ मिलाकर तथा सरसोंका तेल डाल कर सबको अग्नि पर
१ व्रत क. न० स० २ भेलि रु न० स०३ कराहीं स० ४ तस खाहीं स०
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