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________________ १४ श्री कवि किशनसिंह विरचित ताको निरदूषण भाषै, निरबुद्धी बहु दिन राखै । ताके अघको नहिं पारा, सुनिये कछु इक निरधारा ॥८४॥ सब विधि छोडी नहिं जाही, खइये तत्काल कराहीं । अथवा सबेरलों सांजे, भखिये चहुं पहर हि मां जे ॥८५॥ पाछे अथाणाके दोषा, जानो त्रसजीवन कोषा । अथाणाको जो त्यागी, याकों छोडै बडभागी ॥८६॥ दोहा किसनसिंघ विनती करे, सुनो महा मतिमान । याहि तजै सुख परम लहि, भुंजै दुख परधान ||८७॥ चौपाई पंच उदंबरको फल त्याग, करइ पुरुष सोई बडभाग । अरु अजाण फल दोष अपार, मांस दोष खाएं अधिकार ॥८८॥ कंदमूलमें जीव अनन्त, सूई अग्रभाग लखि संत । माटी मांहि असंखित जीव, भविजन तजिये ताहि सदीव ॥८९॥ चढ़ाते हैं इस तरह बनी हुई वस्तुको लौंजी कहते हैं। इसे जिह्वाके लंपट लोग खाते हैं। इसे वे निर्दोष बतलाते हैं और निर्बुद्धि तो बहुत दिन तक रखे रहते हैं। इस प्रकारकी लौंजीके पापका कुछ पार नहीं है। इसका कुछ निर्धार-स्पष्टीकरण सुनिये । यदि लौंजीको सर्वथा नहीं छोड़ा जा सके तो उसे तत्काल बनवा कर खाइये अथवा प्रातःकाल बनवा कर संध्या तक चार प्रहरके भीतर खा लेना चाहिये । चार प्रहरके बाद उसमें अथानाका दोष होता है उसे त्रस जीवोंका खजाना जानना चाहिये । परमार्थ यह है कि जो बड़भागी-संपन्न लोग अथानाके त्यागी हैं वे इस लौंजीको भी छोड़ें ॥८२-८६।। क्रियाकोषके रचयिता श्री किशनसिंह विनती करते हैं-अनुरोध करते हैं कि हे बुद्धिमान जनों ! सुनो, जो इस लौंजीको छोड़ते हैं वे परम सुख प्राप्त करते हैं और जो खाते हैं वे बहुत दुःख पाते हैं ॥८७।। जो मनुष्य पाँच उदम्बर फलोंका त्याग करता है वही बड़ा भाग्यवान् मनुष्य है। इनके सिवाय अजान फलके खानेमें भी अपार दोष लगता है। उनके खानेमें मांस खानेका दोष है। जिस फलके गुण दोष तथा भक्ष्य-अभक्ष्य होनेका अपने आपको निर्णय नहीं है वह अजान फल कहलाता है ॥८८॥ हे सत्पुरुषों ! ऐसा निश्चय करो कि सूईके अग्रभागके बराबर कंदमूलमें अनन्त जीव होते हैं। मिट्टीमें भी असंख्य जीव रहते हैं अतः हे भव्यजनों ! उसका सदा त्याग करो ॥८९॥ महुआ तथा अफीम आदिक पदार्थों को जो खाते हैं वे प्राण त्याग करते हैं। जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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