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श्री कवि किशनसिंह विरचित पाप धर्म नहि जाने भेद, २ता वसि नरक लहै बहु भेद । नींबू लूणमांहि साधिये, वाडि राबडी अरू रांधिये ॥७॥ लूण छाछि जलमें फल डार, कैरादिक जो खाय गंवार । उपजै जीव तासमें घणे, कवि तसु पाप कहां लो भणे ॥७२॥ मरजादा "बीते पकवान, सो लखि संधानो मितिमान । त्याग करत नहि ढील करेहु, मन वच क्रम जिन वच हिय लेहु ॥७३॥ जो मर्यादाकी विधि सार, भाष्यो जिन आगम अनुसार । जिहिमें जलसरदी नहि रहै, तिस मरजादा लखि भवि इहै ॥७४॥ सीतकाल मांहे दिन तीस, पन्द्रह ग्रीषम विस्वाबीस । वरषा रितु भाषे दिन सात, यों सुनिये जिनवाणी आत ॥७५॥
उक्तं च गाथा१०हेमंते तीस दिणा गिण्हे, पणरस दिणाणि पक्कवणं । वासासु य सत्त दिणा, इम भणियं सूयजंगेही ॥७६।।
जीव उत्पन्न होते हैं। इसे जिह्वाके लोभी अज्ञानी जन खाते हैं ॥६९-७०॥ ये अज्ञानी जन पाप
और धर्मका भेद नहीं जानते हैं इसलिये अनेक प्रकारके नरकको प्राप्त होते हैं। जो नींबूको नमकके साथ मिलाकर उसका अथाना बनाते है, वासी दूधकी रबड़ी बनाते है, और नमक मिश्रित छांछमें केला आदिको मिलाकर जो अज्ञानी जन खाते हैं उसमें बहुत जीव उत्पन्न होते हैं। कवि, उसका पाप कहाँ तक कहे ? ॥७१-७२॥ जिसकी मर्यादा बीत जाती है ऐसा पकवान भी संधान जैसा हो जाता है। मन, वचन, कायसे इसका त्याग करनेमें ढील नहीं करनी चाहिये । यह जिनेन्द्र भगवानका वचन हृदयमें धारण करो ॥७३॥ जिनागमके अनुसार मर्यादाकी जो विधि कही गई है उसे धारण करो। जिसमें जलकी सरदी नहीं रहती है अर्थात् पानीका भाग नहीं रहता है, ऐसे बुरे आदिकी मर्यादा शीतकालमें तीस दीन, ग्रीष्मकालमें पन्द्रह दिन और वर्षाऋतुमें सात दिनकी कही गई है ॥७४-७५॥ जैसा कि गाथामें कहा गया है
श्रुतके पारगामी आचार्योंने पक्वान्नकी मर्यादा हेमन्त (शीत) ऋतुमें तीस दिन, ग्रीष्मऋतुमें पन्द्रह दिन और वर्षाऋतुमें सात दिनकी कही है। भावार्थ-अगहन, पोष, माघ और फागुन ये चार माह शीत ऋतुके, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ ये चार माह ग्रीष्म ऋतुके तथा सावन, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक ये चार माह वर्षा ऋतुके माने गये हैं ॥७६॥
१ पुण्य स० २ ते स० न०३ बरी राबरी स० क० ४ लगि ५ विनु जे न० ६ सम जान स० ७ मन वच तजि जिन वच सुन लेहु स०...जिनवचहि पलेहु न० ८ आठ न० स० ९ पाठ न० जिन आगम पाठ स० १० हेमंते तीस दिने गिन्हे कालहु पंन रसा। वरसाकाले सत्त दिने इम नियम सूरियं भणियं ।। स०
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