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________________ श्री कवि किशनसिंह विरचित जै भवि कुमुद विकासन चंद, जै जै सेवत मुनिवर वृंद । जै जै निराबाध भगवान, भगतिवंत दायक शिव थान ॥४७॥ जै जै निराभरण जगदीश, जै जै वंदित त्रिभुवन ईश । ज्ञानगम्य गुण २लिये अपार, जै जै रत्नत्रय भंडार ॥४८॥ जै जै सुखसमुद्र गंभीर, करम शत्रु नाशन वर वीर । आजहि सीस सफल मो भयो, जब जिन तुम चरणनको नयो ॥४९॥ नेत्रयुगल आनंदै जबै, पादकमल तुम देखे तबै । श्रवण ही सफल भये सुन धुनी, रसना सफल अबै थुति भनी ॥५०॥ ध्यान धरत हिरदे धनि भयो, कर युग सफल पूजते थयो । कर पयान तुमलों आइयो, पदयुग सफलपनो पाइयो ॥५१॥ उत्तम वार आज जानियो, वासर धन्य इहै मानियो । जनम धन्य अबही मो भयो, पापकलंक सबै भगि गयो ॥५२॥ आप भव्यरूपी कुमुदोंको विकसित करनेके लिये चन्द्रमा हो अतः आपकी जय हो। मुनिवरोंके समूह आपकी सेवा करते हैं अतः आपकी जय हो । हे भगवन् ! आप सब प्रकारकी बाधाओंसे रहित हैं तथा भक्तिवंत जीवोंके लिये मोक्षस्थान प्रदान करते हैं इसलिये आपकी जय हो, जय हो ॥४७॥ हे भगवन् ! आप आभूषणोंसे रहित हैं तथा समस्त जगतके स्वामी हैं अतः आपकी जय हो, जय हो । तीन लोकके ईश, इन्द्र, धरणेन्द्र तथा चक्रवर्ती आदिके द्वारा आप वन्दनीय हैं अतः आपकी जय हो, जय हो। आप ज्ञानगम्य अनन्त गुणोंको लिये हुए हैं तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रयके भण्डार हैं अतः आपकी जय हो, जय हो ॥४८॥ आप सुखके गहरे समुद्र हैं तथा कर्मरूपी शत्रुओंको नष्ट करनेके लिये अत्यंत बलवान वीर हैं अतः आपकी जय हो, जय हो। हे जिनेन्द्र ! आज ही मेरा शीश सफल हुआ है क्योंकि वह आपके चरणोंमें नम्रीभूत हुआ है ॥४९।। मेरा नेत्रयुगल तब ही आनन्दको प्राप्त हुआ जब उसने आपके चरणकमलोंके दर्शन किये। आपकी वाणी सुननेसे मेरा मुख सफल हुआ है तथा आपकी स्तुतिका उच्चारण करनेसे जिह्वा भी इसी समय सफल हुई है ॥५०॥ आपका ध्यान धारण करनेसे मेरा मन धन्य हो गया, पूजा करनेसे हस्तयुगल सफल हो गया और प्रस्थान कर आपके समीप आया हूँ अतः मेरे चरणयुगलने सफलता प्राप्त की है ॥५१॥ आजका वार उत्तम वार है, आजका ही दिवस धन्य है, मेरा जन्म अभी धन्य हुआ है और मेरे सब पापरूपी कलंक दूर भाग गये हैं ॥५२॥ १जै सेवत मुनिजन आनंद स० २ अमल स० ३ काम स० ४ आजु ही मुख पवित्र मो धनी, रसना धन्य जु तुम थुति भनी स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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