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क्रियाकोष
आनंद भेरि नगरमें थाय, सुन पुरवासी जन हरषाय । नगरलोक परिजन जन सबै, नृप श्रेणिक ले चाल्यो तबै ॥४०॥ विपुलाचल ऊपर शुभ थान, समोशरण तिष्ठे भगवान । पहुंच्यो भूपति हरष लहाय, जिनपद नमि थुति करहि बनाय ॥४१॥ नयन जुगल मुझ सफल जु थयो, चरणकमल तुम देखत भयो । भो तिहुं लोकतिलक मम आज, प्रतिभास्यो ऐसो महाराज ॥४२॥ यह संसार जलधि यों जाण, आय रह्यो इक चुलुक प्रमाण । जै जै स्वामी त्रिभुवननाथ, कृपा करो मोहि जान अनाथ ॥४३॥ मैं अनादि भटको संसार, भ्रमतें कबहुं न पायो पार । चहुंगति मांहि लहे दुःख जिते, ज्ञानमांहि दरशत हैं तिते ॥४४॥ तातें चरण आइयो सेव, मुझ दुःख दूर करो जगदेव ।। जै जै रहित अठारा दोष, जै जै भविजन दायक मोष ॥४५॥ जय जय छियालीस गुणपूर, जै मिथ्यातम नाशन सूर ।
जै जै केवलज्ञान प्रकाश, लोकालोक करन प्रतिभाश ॥४६॥ नगरमें आनन्दभेरी बजवाई गई जिसे सुन नगरवासी हर्षित हुए। इस प्रकार नगरवासी तथा घर कुटुम्बके सब लोगोंको साथ ले राजा श्रेणिक वन्दनाके लिये चले ॥४०॥ विपुलाचल पर्वतके ऊपर जिस शुभ स्थानमें भगवान समवसरण सहित विराजमान थे वहाँ पहुँच कर राजाने हर्षित हो उनके चरणोंमें नमस्कार किया और इस प्रकार बनाकर स्तुति की ॥४१॥
हे भगवन् ! मैं आपके चरणकमलोंका दर्शन कर सका इसलिये मेरे नयन युगल सफल हो गये हैं। हे त्रिलोकनाथ ! आज मुझे ऐसा जान पड़ता है ॥४२॥ कि मेरा यह संसाररूपी समुद्र एक चुल्लके बराबर रह गया है । हे त्रिभुवनके स्वामी ! आपकी जय हो, जय हो । अनाथ जान कर मुझ पर कृपा करो ॥४३।। मैं अनादि कालसे संसारमें भटक रहा हूँ। भटकते भटकते मैंने कभी उसका पार नहीं पाया। चारों गतियोंमें मैंने जितने दुःख प्राप्त किये हैं वे सब आपके ज्ञानमें दिखाई दे रहे हैं ।।४४॥ इसलिये हे भगवन् ! आपके चरणोंकी सेवाके लिये आया हूँ। हे जगतके नाथ ! मेरा दुःख दूर कीजिये । आप अठारह दोषोंसे रहित है इसलिये आपकी जय हो, जय हो। आप भव्य जीवोंको मोक्ष प्रदान करते हैं अतः आपकी जय हो ॥४५।। आप छियालीस गुणोंसे परिपूर्ण हो अतः आपकी जय हो, जय हो। आप मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिये सूर्य हो अतः आपकी जय हो। आपका केवलज्ञानरूपी प्रकाश लोकालोकको प्रतिभासित कर रहा है अतः आपकी जय हो, जय हो ॥४६।।।
१ हौं स० न०
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