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श्री कवि किशनसिंह विरचित
तीन कल्यानक जिहि दिन थाय, कांजी करिये भवि चित लाय । चारि कल्यानक भेला होय, प्रोषध करिये संशै खोय ॥ १८९६ ॥
दोहा
व्रत पचहत्तर तिथि सुविधि, मास वरष मरजाद । प्रोषध असन विशेष जो, करिये तज परमाद || १८९७॥
सो भाषी याके विषै, लखि करिये मतिमानि । सकति उलंघ न कीजिये, सकति न तजिये जानि ॥ १८९८॥ वास धारनौं पारनौं, करिये दुहु एकंत । नीर न लीजै तिहि विषै, सो प्रोषध जु महंत || १८९९ ॥ अवदवास विधि प्रथम ही, कही तीन परकार । जैसी सकति गहीजिये, तैसो फल है सार ॥। १९००॥ व्रत सब भाषै तिन विषे, करै पुरुष वा नारि । सील पालिवो दुहुनिको, जिन भाष्यो निरधारि || १९०१ || आदरतै व्रत लीजिये, करिये तिम निरवाह । बिन आदर करिवो इसौं, जिम कन तजि भुस चाह ॥ १९०२ ॥
जिस दिन तीन कल्याणक आवे उस दिन कांजी आहार करना चाहिये और जिस दिन चार कल्याणक हों उस दिन निःसंदेह प्रोषध करना चाहिये ॥१८९६ ॥
इस प्रकार पचहत्तर व्रतोंकी तिथि, विधि, मास तथा अवधिका वर्णन किया । प्रोषध और आहार विशेष, जिस व्रतका जैसा कहा है वैसा प्रमाद छोड़कर करना चाहिये । सब व्रतोंकी विधि इस ग्रंथमें कही गई हैं उसे देखकर करना चाहिये । शक्तिका उल्लंघन नहीं करना चाहिये और जानबूझकर शक्तिका त्याग भी नहीं करना चाहिये । उपवासके धारणा और पारणाके दिन एकाशन करना चाहिये, दुबारा पानी भी नहीं लेना चाहिये । इसे उत्कृष्ट उपवास कहा गया है ।।१८९७-१८९९॥
अवदवास (अनुपवास) की विधि उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारकी कही गई है। जैसी शक्तिसे उसे ग्रहण किया जाय उसीके अनुसार फलकी प्राप्ति होती है । इस प्रकार सब व्रतोंका वर्णन पूर्ण हुआ । व्रतको चाहे पुरुष करें, चाहे स्त्री करें, दोनोंको शीलव्रतका पालन करना चाहिये ऐसा जिनेन्द्र भगवानने कहा है । आदरपूर्वक व्रत लेना चाहिये और आदरपूर्वक उसका निर्वाह करना चाहिये । बिना आदर के व्रत करना सो दाना छोड़कर भूसा ग्रहण करनेके समान है ।। १९००-१९०२।।
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