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श्री कवि किशनसिंह विरचित जनम कल्याणक दत्त विस्तरै, चिणा भिजोय रु विरहा करै । मोदक फल घर बाँटै नार, चित्तमांहि अति हित अवधार ॥१८६४॥ तप कल्याणक दत्त अवधार, बाँटे पापर खिचडी धार । जिन आगमहि बखाणी नहीं, युक्तिमान मानस विधि गही ॥१८६५॥ ज्ञानकल्याणक पूरा थाय, जबै दान दे मन चित लाय । पाठ मंगाय जु बाँटै तिया, मनमें हरष सफल निज जिया ॥१८६६॥ करके कल्याणक निर्वाण, तास दानको करै बखान । मोतीचूर रु मगद कसार, लाडू कर बाँटे सब नार ॥१८६७॥ बीस चार घरकी मर्याद, दे अतिमान हिये अहलाद । मनकी उकति उपावै घणी, जिन शास्त्रनि माहे नहि भणी ॥१८६८॥ यातें सुनिये परम सुजान, जिन आगम भाष्यो परमान । थोडो किये अधिक फल देय, भाव सहित कर सुरपद लेय ॥१८६९॥
अडिल्ल छंद जिम जिन आगम कह्यो दान तिम दीजिये, निज मन युक्ति उपाय कबहु नहि कीजिये; कलीकाल नहि जोग संघ नहि पाइये, धर्मवंत लखि पुरुष ताहि चित लाइये ॥१८७०॥
व्रतके उपलक्ष्यमें मैदाके खाजा बनवाकर प्रसन्नतापूर्वक सबको बाँटे, प्रमाद न करे। जन्मकल्याणक व्रतके उपलक्ष्यमें चना भिगोकर उनके बिरहा, मोदक तथा फल प्रसन्न चित्तसे घरघर बाँटे । तप कल्याणक व्रतके उपलक्ष्यमें बाजराके पापड़ तथा खिचड़ी बाँटे । ज्ञानकल्याणक व्रतके उपलक्ष्यमें जब दान देवे तो अनेक ग्रंथोंको मँगाकर प्रसन्नतापूर्वक बाँटे ॥१८६१-१८६६॥
निर्वाणकल्याणक व्रतके उपलक्ष्यमें मोतीचूर, मगद तथा कंसारके लाडू चौबीस घरोंमें बाँटे। ग्रंथकर्ता कविवर किशनसिंह कहते हैं कि :- किस व्रतके उपलक्ष्यमें क्या बाँटना, इसका आगममें कोई कथन नहीं है, यहाँ हमने लौकिक दृष्टिसे कथन किया है। मनमें अनेक प्रकारके उत्साह उत्पन्न होते हैं उन सबका आगममें कथन नहीं किया जा सकता। इसलिये हे ज्ञानीजनों ! सुनो, जिनागममें तो यह कहा है कि अच्छे भावसे दिया हुआ थोड़ा दान भी बहुत फल देता है अतः भावपूर्वक दान देकर देवपद प्राप्त करो ॥१८६७-१८६९॥
ग्रंथकर्ता कहते हैं कि जिनागममें जिस प्रकार दान देना कहा है उसी प्रकार देना चाहिये। अपने मनकी युक्ति बनाकर कभी नहीं देना चाहिये। कलिकालमें उन योगीजनोंका संघ दुर्लभ हो
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