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________________ क्रियाकोष दोहा भोजनादि निज सकति जुत, दानादिक विधि सार । करि उपजाये पुण्य बहु, यामें फेर न सार || १८७१ ।। एकासन कर धारणे, अवर पारणे जान । शील सहित प्रोषध सकल, करहु सुभवि चित आन || १८७२॥ मरहटा छन्द कल्याणक सारं पंच प्रकारं गरभ जनम तप णाण, पंचम निर्वाणं वरत प्रमाणं कहियो महापुराण । तिनकी विधि भाखी जिम जिन आखी किये लहै सुरगेह, अनुक्रम शिव पावे जे मन भावे ते सब जानी एह || १८७३ || निर्वाण कल्याणकका बेला चौपाई २९९ जे जे तीर्थंकर निर्वाण, गये तास दिनकी तिथि ठाण । तिह दिनको पहिलो उपवास, लगतो दूजो वास प्रकाश ॥ १८७४॥ इह विधि बारह मास मझार, बेला करिये बीस रु चार । बेला कल्याणक निर्वाण, वरत नाम लखिये बुधमाण || १८७५ ॥ रहा है, इसलिये धर्मी पुरुषोंका मनमें ध्यान करना चाहिये || १८७० ।। अपनी शक्तिके अनुसार सहधर्मी जनोंको भोजनादि कराने तथा शक्ति अनुसार प्रभावना बाँटनेसे बहुत पुण्यका उपार्जन होता है इसमें संशय नहीं है । एकाशन, धारणा, पारणा और उपवास आदि समस्त विधिको हे भव्यजनों ! शीलसहित उत्साहपूर्वक करो || १८७१-१८७२।। गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण, ये पंचकल्याणक कहे गये हैं, इस पंचकल्याणक व्रतका कथन महापुराणमें हुआ है । जिन-जिनेन्द्र भगवान अथवा जिनसेनाचार्यने उसकी विधि जैसी कही है वैसी मैंने यहाँ निरूपित की है। इस व्रतको जो ग्रहण करते हैं वे देवगतिको प्राप्त होते हैं और अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं अतः मनको जैसा प्रिय हो वैसा करो || १८७३ ॥ निर्वाण कल्याणकका बेला Jain Education International जो तीर्थंकर जिस तिथिको मोक्ष गये हैं उस तिथिका पहला उपवास और उसीसे संलग्न दूसरा उपवास करना चाहिये । इस विधिसे बारह मासमें चौबीस बेला हो जाते हैं । यही निर्वाण कल्याणक बेला नामका व्रत जानना चाहिये ।।१८७४-१८७५।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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