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क्रियाकोष
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है सम्पूरण व्रत जबै, कर उद्यापन सार । आगममें जिन भाषियो, सो भवि सुन निरधार ॥१८५७॥
उद्यापनकी विधि
चौपाई पाँच कीजिये जिनवर गेह, पाँच प्रतिष्ठा कर शुभ लेह । झालरि झाँझ कंसाल रु ताल, छत्र चमर सिंघासन सार ॥१८५८॥ भामंडल पुस्तक भंडार, पंच पंच सब कर निरधार । घंटा कलश ध्वजा पण थाल, चन्द्रोपक बहु मोल विशाल ||१८५९।। पुस्तक पाँच चैत गृह धरै, तिन बाँचै भविजन भव तरै ।
चार संघको देय आहार, जिन आगम भाषी विधि सार ॥१८६०॥* इतनी विधि जो करी न जाय, सकति प्रमाण करै सो आय । सकति उलंघन करनी कही, सकतिवान किरपन है नहीं ॥१८६१॥ काहू भांति कछु नाहीं थाय, तो दूणो व्रत कर चित लाय । अबै वरत करिहै नर नार, करै दान सुन हिय अवधार ॥१८६२॥ गरभ कल्याणकको दत्त जान, मैदाका करि खाजा आन ।
बांटै सबको घर अहलाद, करे इसी विधि हर परमाद ॥१८६३॥ जब पंचकल्याणक व्रत पूर्ण हो जावे तब उसका अच्छी तरह उद्यापन करना चाहिये। आगममें जिनेन्द्र भगवानने उद्यापनकी जैसी विधि कही है उसे सुनकर हे भव्यजनों ! उसका निश्चय करो ॥१८५७॥
उद्यापनकी विधि-पाँच जिनमंदिर बनवाकर उनमें पाँच प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा कराये । झालर, झांझ, कंसाल, ताल, छत्र, चमर, सिंहासन, भामण्डल और पुस्तक भंडार पाँच-पाँचकी संख्यामें चढ़ावे। घंटा, कलश, ध्वजा, थाल, चंदेवा और पुस्तक, पाँच-पाँचकी संख्यामें मंदिरमें रक्खे । उन स्थापित पुस्तकोंको पढ़ कर भव्यजीव संसार सागरसे पार होंगे। जिनागममें कहे अनुसार चतुर्विध संघको आहार दान देवे ॥१८५८-१८६०॥ यदि इतनी विधि करनेकी शक्ति न हो तो अपनी शक्तिके अनुसार करे। शक्तिको उल्लंघकर न करे, और शक्तिमान कृपणता न करे। यदि किसी भाँति कुछ भी करनेकी सामर्थ्य न हो तो व्रतको दुने दिन करे। जो नरनारी इस समय व्रत करे वे प्रभावना के लिये बाँटने योग्य वस्तुओंका वर्णन सुने। गर्भकल्याणक
१. चार संघको दे बह दान, विनय करे उर उन गुन जान । स० न० * छन्द १८६० के आगे सन० प्रतिमें निम्न चौपाई अधिक है
भुखित दुखित जो प्रानीजन, तिन्हे देहु उर करुना आन । अभयदान औषध आहार, जिन आगम विधि भाषी सार ।।
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