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क्रियाकोष
२७१
रतनत्रय तिहुँ तीज ज्ञान पण पंचमी, नवनिधि प्रोषध एक तीस करि अघ गमी ॥१७०१॥
श्रुतज्ञान व्रत
दोहा प्रोषध व्रत श्रुतज्ञानके, जिनवर भाषे जेम । सकल आठ अरु एक सौ, बुधि सुणि भवि धर प्रेम ॥१७०२॥
__ चौपाई सुकल पाखमैं व्रत लीजिये, षोडश तिथि ताकी कीजिये । सोला पडिवा प्रोषध सार, सितकारी पखमैं निरधार ॥१७०३॥ दोयज दोय तीन कर तीज, चौथ चार पण पांचे लीज । छह छठ्ठि सातै सात बखाणि, आठै आठ नवमी नव जाणि ॥१७०४॥ बीस दसै ग्यारा ग्यारसी, प्रोषध करि बारा बारसी । तेरसी तेरस वास बखाणि, चौदसि चौदह प्रोषध ठाणि ॥१७०५॥ पून्यो पन्दरह करि उपवास, अमावस पन्दरह करिये तास । शील सहित प्रोषध सब करे, भव भवके संचित अघ हरै॥१७०६॥
सिंहनिःक्रीडित व्रत
दोहा
सिंहनिःक्रीडित तप तणो, कहूँ विशेष बखाण । विधिसों कीजे भावजुत, करम निरजरा ठाण ॥१७०७॥
लक्ष्य कर तीन तृतीया और पाँच ज्ञानोंको लक्ष्य कर पाँच पंचमी, इस प्रकार इकतीस प्रोषध करनेसे नवनिधि व्रत पूर्ण होता है। यह पापोंको नष्ट करनेवाला है ॥१७०१॥
श्रुतज्ञान व्रत जिनेन्द्र भगवानने श्रुतज्ञान व्रतके कुल मिलाकर एकसौ साठ प्रोषध कहे हैं। हे भव्य जीवों ! प्रेमपूर्वक उसकी विधि सुनो ! यह व्रत संपूर्ण पक्षकी अपेक्षा लिया जाता है उसमें सोलह तिथियाँ होती है उनका शुक्ल और कृष्ण पक्षकी अपेक्षा निर्धार होता है। अतः पडिवाके १६, दुजके २, तीजके ३, चौथके ४, पाँचमके ५, छठके ६, सातमके ७, आठमके ८, नवमीके ९, दसवीके २०, ग्यारसके ११, बारसके १२, तेरसके १३, चौदशके १४, पूर्णिमाके १५ और अमावसके १५, इस प्रकार सब मिला कर १६० प्रोषध होते हैं। शील सहित ये प्रोषध करने चाहिये । इस व्रतसे भव भवके पाप दूर हो जाते हैं ॥१७०२-१७०६॥
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