SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १ श्री कवि किशनसिंह विरचित क्रियाकोष दोहा सहित, वर्धमान समाय । यथा नीर लों दरसाय ॥ २ ॥ तेईस । सीस ॥ ३ ॥ समवसरणलक्ष्मी * नमों विबुधवन्दितचरण, भविजन कौं जा ज्ञानप्रकाशमें, लोक अनन्त जिम समुद्र ढिग गायखुर, वृषभनाथ जिन आदि दे, पारस मन वच काया भाव धरि, बंद कर धरि नमों सकल परमातमा, रहित अठारा दोष | छियालीस गुण आदि दे, हैं अनन्त गुणकोष || ४ || वसु गुण समकित आदि जुत, प्रणमों सिद्ध महंत । काल अनन्तानन्त थिति, लोकशिखर आचारज उवझाय गुरु, साधु त्रिविध भववनवासी र जननि निवसंत ॥ ५ ॥ दरसावें Jain Education International को, जिनराय । सुखदाय ॥१॥ श्री पन्नालालजी साहित्याचार्य कृत हिंदी अनुवाद मंगलाचरण और ग्रंथकारकी प्रतिज्ञा I जो समवसरण लक्ष्मीसे सहित है, देव जिनके चरणोंको वन्दना करते हैं तथा जो भव्य जीवोंको सुखदायक हैं ऐसे वर्धमान जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ ||१|| जिनके ज्ञानके प्रकाशमें अनन्तलोक समा जाते हैं । जिस प्रकार समुद्रके समीप गोष्पद - गोखुरका जल अत्यन्त तुच्छ जान पड़ता है उसी प्रकार जिनके ज्ञानप्रकाशके समीप अनन्तलोक तुच्छ जान पड़ते हैं ||२|| वृषभदेवको आदि लेकर पार्श्वनाथ तक जो तेईस तीर्थंकर हैं उन्हें मन वचन कायसे अंजलि बांध शिर झुकाकर भावपूर्वक नमस्कार करता हूँ || ३ || जो छियालीस गुणोंको आदि लेकर अनन्त गुणोंके भण्डार हैं तथा जन्म मरण आदि अठारह दोषोंसे रहित हैं उन सकल ( देहसहित ) परमात्मा अर्थात् अरहन्त परमेष्ठीको नमस्कार करता हूँ ||४|| जो सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे युक्त हैं, जिनकी स्थिति अनन्तानन्त कालकी है और जो लोकशिखर पर निवास करते हैं उन सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार करता हूँ ||५|| जो संसाररूपी वनमें निवास करनेवाले लोगोंको मोक्षका मार्ग दिखलाते हैं उन आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन प्रकारके निर्ग्रथ मुनियोंको नमस्कार करता हूँ ||६|| * पाठांतर - लछमी १ खाड स० २ भविजनवासी स For Private & Personal Use Only निर्ग्रन्थ | शिवपंथ ||६|| www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy