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________________ श्री कवि किशनसिंह विरचित जिनवाणी दिवध्वनि खिरी, द्वादशांगमय सोय । ता सरस्वतिको नमतहुं, मन वच क्रम जिन सोय ॥७॥ देव सुगुरु श्रुतको नमूं, त्रेपन किरिया सार । श्रावककी वरणन करूं, संक्षेपहिं निरधार ॥८॥ चौपाई जंबद्वीप द्वीपसिर जान, मेरु सुदरशन मध्य 'बखान । ताकी दक्षिण दिस शुभ लसै, भरतक्षेत्र अति शुभसहि वसै ॥९॥ तामें मगधदेश परधान, नगर मडंब द्रोण पुर थान ।। वन उपवन जुत शोभा लहै, ताको वरणन कवि को कहै ॥१०॥ राजगृही नगरी अति बनी, इन्द्रपुरी मानों दिव तनी ।। जिनवर भवन शोभ अति लहैं, तस उपमा वरणन को कहै ॥११॥ श्रावक उत्सव सहित अनेक, जिन पूजै अति धर सुविवेक । मन्दिर पंक्ती शोभे भली, गीतादिक पुरसैं मनरली ॥१२॥ धरमी जन १०तामें बहु वसैं, दान चार दें चित उल्लसैं । चहूं फेर तासके कोट, गोपुरजुत अति बनो निघोट ॥१३॥ जो अरहन्त भगवानकी वाणी दिव्यध्वनिके रूपमें खिरकर द्वादशांगरूप परिणत हुई उस सरस्वतीको मैं मन वचन कायसे नमस्कार करता हूँ॥७॥ इस प्रकार मैं देव, शास्त्र और गुरुको नमस्कार कर संक्षेपसे श्रावककी त्रेपन क्रियाओंका वर्णन करता हूँ ॥८॥ कथाका उद्धार जम्बूद्वीप सब द्वीपोंमें शिरमौर हैं, उसके मध्यमें सुदर्शन मेरु विद्यमान है। उसी जम्बूद्वीपकी दक्षिण दिशामें भरतक्षेत्र अत्यन्त सुशोभित है ॥९॥ उस भरतक्षेत्रमें मगध देश प्रधान है। उस देशमें नगर, मदंव तथा द्रोणमुख आदि अनेक स्थान हैं, जो वन और उपवनोंसे युक्त होकर अतिशय शोभायमान हैं। उस देशका वर्णन कौन कवि कर सकता है ? ॥१०॥ जिस प्रकार स्वर्गमें इन्द्रपुरी सुशोभित है उसी प्रकार उस मगध देशमें राजगृही नगरी अतिशय शोभायमान थी। जिसमें जिनमंदिर अतिशय शोभाको प्राप्त हो रहे थे उसकी उपमाका वर्णन कौन कर सकता है ? ॥११॥ जहाँके विवेकी श्रावक अनेक प्रकारके उत्सवोंके साथ जिनेन्द्र भगवानकी पूजा करते थे, जहाँ संगीत आदिसे मनको मोहित करनेवाली मंदिरोंकी श्रेणी अत्यधिक शोभायमान रहती थी॥१२॥ उस राजगृही नगरीमें ऐसे अनेक धर्मात्माजन रहते थे जिनका चित्त चार प्रकारका दान देकर उल्लसित-शोभायमान रहता था। उस नगरीके चारों ओर १ वरि दिव्यधुनि स० २ मन वच तनि जिय जोय स०३ गुरू न० ४ जाणि ५ वखाणि ६ सुन्दरि वसै स० ७ गेहि शोभाको लसै न० ८ समकित स. ९ मनि धरि सुविवेक स० १० सब तामें वसै स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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