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जैसे विवेक धर्मका मूल तत्त्व है, वैसे ही यत्ना धर्मका उपतत्त्व हैं । विवेकसे धर्मतत्त्वको ग्रहण किया जाता है और यत्नासे वह तत्त्व शुद्ध
खा जा सकता है, उसके अनुसार आचरण किया जा सकता है । पाँच समितिलप यत्ना तो बहुत श्रेष्ठ है; परंतु गृहस्थाश्रमीसे वह सर्व भावसे पाली नहीं जा सकती, फिर भी जितने भावांशमें पाली जा सके उतने भावांशमें भी असावधानीसे वे पाल नहीं सकते । जिनेश्वर भगवान द्वारा बोधित स्थूल और सूक्ष्म दयाके प्रति जहाँ बेपरवाई है वहाँ बहुत दोषसे पाली जा सकती है । इसका कारण यत्नाकी न्यूनता है । उतावली और वेगभरी चाल, पानी छानकर उसकी जीवानी रखनेकी अपूर्ण विधि, काष्ठादि ईंधनका बिना झाडे, बिना देखें उपयोग, अनाजमें रहे हुए सूक्ष्म जन्तुओंकी अपूर्ण देखभाल, पोंछे-माँजे बिना रहने दिए हुए बरतन, अस्वच्छ रखे हुए कमरे, आँगनमें पानीका गिराना, जूठनका रख छोडना, पटरेके बिना खूब गरम थालीका नीचे रखना, इनसे अपनेको अस्वच्छता, असुविधा, अनारोग्य इत्यादि फल मिलते हैं; और ये महापापके कारण भी हो जाते हैं । इसलिये कहनेका आशय यह है कि चलनेमें, बैठनेमें, उठनेमें, जीमने में और दूसरी प्रत्येक क्रियामें यत्नाका उपयोग करना चाहिये । इससे द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकारसे लाभ है | चाल धीमी और गंभीर रखनी, घर स्वच्छ रखना, पानी विधिसहित छनवाना, काष्ठादि ईंधन झाडकर डालना, ये कुछ हमारे लिये असुविधाजनक कार्य नहीं है
और इनमें विशेष वक्त भी नहीं जाता । ऐसे नियम दाखिल कर देनेके बाद पालने मुश्किल नहीं है । इनसे बिचारे असंख्यात निरपराधी जन्तु बचते हैं। प्रत्येक कार्य यत्नापूर्वक ही करना यह विवेकी श्रावकका कर्तव्य है ।
-श्रीमद् राजचंद्र (मोक्षमाला-शिक्षापाठ २७ : यत्ना)
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