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________________ २५२ श्री कवि किशनसिंह विरचित इन्द्रभूत तद्भव शिव गयो, 'दुहूँ तिहूँ उत्तम पद लयो । यातें जे भवि परम सुजान, रेकरो वरत पावो सुखथान ॥१५९७॥ दूजी विधि आगम इम कहै, पडिवा तीजहि प्रोषध गहै । दोयज दिवस करे एकन्त, इस मरयाद वरष छह सन्त ॥१५९८॥ पडिवा तीज एकान्त करेय, दोयजको उपवास धरेय । मरयादा भाषी नव वर्ष, करिये भवि मनमें धरि हर्ष ॥१५९९॥ पंच दिवसलों पालै शील, सुरगादिक सुख पावै लील । पुनि उत्तम नर पदवी लहै, दीक्षा धर शिवतिय-कर गहै ॥१६००॥ ___ अक्षयनिधि व्रत चौपाई व्रत अक्षयनिधिका उपवास, श्रावण सुदि दशमी करि तास । भादों वदि जब दशमी होय, तिनहूँ के प्रोषध अवलोय ॥१६०१॥ अवर सकल एकंत जु धरै, सो दश वर्ष हि पूरो करै । उद्यापन करि छांडै ताहि, नांतर दुगुणो करिहै जाहि ।।१६०२॥ इसलिये जो परम ज्ञानी जीव हैं वे उन गणधरोंको नमस्कार कर इस लब्धि विधानव्रतको धारण करे और उसके फलस्वरूप सुखका स्थान प्राप्त करें ॥१५९४-१५९७।। इस व्रतकी दूसरी विधि शास्त्रोंमें यह भी कही गई है कि पडिवा और तीजका प्रोषध करे तथा दूजका एकाशन करे। इस व्रतकी मर्यादा छह वर्षकी कही गई है ॥१५९८॥ यदि पडिवा और तीजका एकाशन तथा दूजका उपवास करके कोई यह व्रत करता है तो उस व्रतकी मर्यादा नौ वर्षकी है। इसलिये हे भव्यजीवों ! मनमें हर्ष धारण कर इस व्रतका पालन करो ॥१५९९।। ग्रन्थकार कहते हैं कि जो पाँच दिन तक शीलका पालन करते हुए इस व्रतको धारण करते हैं वे स्वर्गादिक सुख भोगकर उत्तम मनुष्यपदको प्राप्त करते हैं और दीक्षा धारण कर मुक्तिवल्लभाको प्राप्त होते हैं ॥१६००॥ अक्षयनिधि व्रतका वर्णन अक्षय निधि व्रत श्रावण सुदी दसवींसे शुरू होकर भादों वदी दसवींको समाप्त होता है। प्रारंभ और अंतिम दिन उपवास होता है और बीचके दिनोंमें एकाशन । दश वर्षमें यह व्रत पूर्ण होता है। उद्यापन करनेके बाद व्रतको छोड़ना चाहिये। यदि उद्यापनकी सामर्थ्य नहीं है तो व्रतको दूना करना चाहिये ॥१६०१-१६०२॥ १ दोहि पुत्र तदि भव शिव लहो। स० २ करिये व्रत पायो सुखथान स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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