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________________ २४८ श्री कवि किशनसिंह विरचित अथवा आठ वरषलों जान, बीस चार तसु साख बखान । पंच वरष करि पंदरा साख, धरि मन वच तन शुभ अभिलाख ॥१५७१॥ तीन वरषनो साख प्रमाण, एक वरष तिहु साख सुजाण । जैसी सकति देइ अवकास, सो विधि आदर करि भवि तास ॥। १५७२॥ सकति प्रमाण उद्यापन करे, संवरतै कबहूँ नहि टरे । मैनासुंदरि अरु श्रीपाल, कियौ वरत फल लह्यो रसाल ॥१५७३ || कोढ अठारह हो तन जास, सबै गये सुवरण परकास । और जु हुते सात सै वीर, तिनके निर्मल भये शरीर || १५७४॥ चक्री भयो नाम हरषेण, व्रत त्रिशुद्ध आराध्यो तेण । तिन फल पायौ सुख दातार, करम नासि पहुँचे भव- पार || १५७५॥ अंतराय पारो भवि सार, मौन सहित करिये आहार । व्रतमें हरी जिके नर खाय, संवर तास अकारथ जाय ॥ १५७६ ॥ तातै व्रत धारी नर नार, मन वच क्रम हियरे अवधार । विधि माफिकते भविजन करो, सुर नर सुख लहि शिवतिय वरो ॥१५७७॥ होता है उसकी इक्यावन शाखाएँ जानना चाहिये । अथवा आठ वर्षका यह व्रत होता है उसकी चौबीस शाखाएँ कही गई है । अथवा पाँच वर्षका यह व्रत होता है उसकी पन्द्रह शाखाएँ मानी गई है। अथवा तीन वर्षका यह व्रत होता है उसकी नौ शाखाएँ हैं अथवा एक वर्षका यह व्रत है उसकी तीन शाखाएँ कही गई है। जिसकी जैसी शक्ति और जैसा अवकाश हो तदनुसार आदरपूर्वक इस व्रतका पालन करना चाहिये ।।१५७०-१५७२।। 1 व्रत पूर्ण होने पर शक्तिके अनुसार उद्यापन करना चाहिये । ग्रन्थकार कहते हैं कि संवरके इस कार्यसे कभी पीछे नहीं हटना चाहिये । मैनासुन्दरी और श्रीपालने यह व्रत किया और उसका सुखदायक फल प्राप्त किया || १५७३ || जिस श्रीपालके शरीरमें अठारह प्रकारका कुष्ठ रोग था उसका शरीर सुवर्णके समान प्रकाशमान हो गया। यही नहीं, उनके साथ रहनेवाले सात सौ वीरोंके शरीर भी इस व्रतके प्रभावसे निर्मल हो गये || १५७४ || हरिषेण चक्रवर्तीने त्रियोगकी शुद्धतापूर्वक इस आष्टाह्निक व्रतको धारण किया और उसके सुखदायक फलस्वरूप कर्म नष्ट कर मोक्ष प्राप्त किया ।। १५७५॥ हे भव्यजीवों ! व्रतके दिन अन्तरायका पालन करो, मौनपूर्वक भोजन करो, और हरीका त्याग करो। क्योंकि व्रतके दिन जो हरी खाते हैं उनका व्रत व्यर्थ जाता है-उससे कर्मोंका संवर नहीं होता ।।१५७६।। इसलिये व्रतधारक नरनारी, हृदयमें त्रियोगशुद्धिका विचार कर विधिपूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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