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क्रियाकोष
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चौपाई तीजी विधि जु अठाई जानि, आट तें चउवासहि ठानि । बारस असन पछै तिहुं वास, इहै भेद लखि पुण्य निवास ॥१५६४॥ दशमी तेरस जीमण होइ, बेला तीन करहु भवि लोय ।। चौथो भेद यहै जानिये, शीलसहित व्रत को ठानिये ॥१५६५॥ आठ दशमी बारस तीन, प्रोषध धरिये भव्य प्रवीन । चउदस पंदरस बेलो करे, पंचम विधि बुधजन उच्चरे ॥१५६६॥ आठै ग्यारस चौदस जान, तीन दिवस उपवास बखान । अथवा दोय करे नर कोय, एकासन पण छह दिन जोय ॥१५६७॥ यह व्रत संवर धरि मन लाय, सबै हरी तजिये दुखदाय । दस दिन शील वरत पालिये, संवरहूँ इह विधि धारिये ॥१५६८॥ वसु एकासण विधि जुत करे, पाँच पाप व्रत धरि परिहरै । घर आरंभ तजै अघदाय, दिवस आठलों शुभ उपजाय ॥१५६९॥ अब मरयादा सुनि भवि जीव, धरि त्रिशुद्धतासों लखि लीव । सत्रह वरष साखि इक जान, करि एकावन साख प्रमान ॥१५७०॥
आष्टाह्निक व्रतकी तीसरी विधि यह है कि अष्टमीसे एकादशी तक चार उपवास करे, द्वादशीको भोजन करे, पश्चात् तीन उपवास करे, यह भेद पुण्यका निवास है अर्थात् इस विधिसे व्रत करने पर सातिशय पुण्यका संचय होता है ॥१५६४॥ चौथी विधि यह है कि अष्टमी नवमीका, एकादशी द्वादशीका और चतुर्दशी पूर्णिमाका बेला करे एवं दशमी और त्रयोदशीको भोजन करे, साथ ही सभी दिन शील व्रतका पालन करे॥१५६५॥ विद्वज्जनोंने आष्टाह्निक व्रतकी पाँचवीं विधि यह कही है कि अष्टमी, दशमी और द्वादशीके तीन एकाशन भावपूर्वक करे। नवमी और एकादशीका उपवास रक्खे तथा चतुर्दशी और पूर्णिमाका बेला करे ॥१५६६॥ छठवीं विधि यह है कि अष्टमी, एकादशी और चतुर्दशी, इन तीन दिनोंका उपवास करे, शेष पाँच दिन एकाशन करे। अथवा अष्टमी और चतुर्दशीका उपवास करे, शेष छह दिनका एकाशन करे ॥१५६७। यह व्रत संवरका साधक है ऐसा विचार कर सभी प्रकारकी दुःखदायक वनस्पतिओंका त्याग करना चाहिये तथा शील व्रतका पालन करना चाहिये क्योंकि इसी विधिसे संवरकी साधना होती है ॥१५६८॥ एक विधि यह भी है कि विधिपूर्वक आठ एकाशन करे, व्रत रखकर पाँच पापोंका त्याग करे, पापके कारणभूत गृहारम्भों-गृहस्थीके कार्योंका परिहार करे तथा आठ दिन तक शुभभाव रक्खे ॥१५६९॥ हे भव्यजीवों! अब इस व्रतकी मर्यादा सुनो तथा त्रियोगकी शुद्धतापूर्वक इसका निश्चय करो। सत्तरह वर्षका यह व्रत
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